विष्णु सहस्त्रनाम 1000 नाम Lord Vishnu 1000 Names with Hindi meaning thrusday vishnu mantra

 

विष्णु सहस्त्रनाम मंत्र 1000 names of Lord Vishnu 

विष्णु सहस्त्रनाम में विष्णु भगवान के 1000 नामो का वर्णन है इसके अंदर 108 श्लोक है| इसकी रचना महर्षि वेदव्यास जी ने की थी| इसका रोज जाप करने से खासकर वीरवार को इसका जाप करने से शुभ फल की प्राप्ति होती है| यह हिंदू धर्म के सबसे प्रचलित और शुभ श्लोको में से है| इसका वर्णन महाभारत के अनुसासन पर्व में मिलता है जब बाणों की शैया पर लेते भीष्म से मिलने युधिस्ठिर आते है तब भीष्म उनको धर्म का नीति का ज्ञान देते हुए इसकी महिमा का वर्णन करते है|

ज्योतिष में विष्णु सहस्त्रनाम के जाप के लाभ

हमारे अन्तरिक्ष में बहुत से तारे, गृह(नवग्रह) और 27 नक्षत्रो का समूह है| इनमे से कुछ तो घूमते है और कुछ अपनी जगह पर स्थिर रहते है| जब भी कोई बच्चा जन्म लेता है उस समय उन ग्रहों और तारो की आकाश में कता स्थिति थी उसी के आधार उस बच्चे की कुंडली बनती है| जैसे जैसे इन ग्रहों का जगह बदलती है जिसे गोचर कहते है व्यक्ति के जीवन में अलग अलग बदलाव आते है जिसका अनुमान ज्योतिषी लगाते है|

 

ज्योतिषी में भी विष्णु सहस्त्रनाम के जाप का बहुत अधिक महत्व है| अन्तरिक्ष में उपस्तिथ 27 नक्षत्रो को 4 पदों में बाटा गया है और विष्णु सहस्त्रनाम के 108 श्लोको(27 x 4) को हर नक्षत्र का एक पद दिया गया है| जिनको अपने जन्म नक्षत्र के पद का पता होता है वो सिर्फ उसी श्लोक का जाप करके और जिनको अपने जन्म नक्षत्र का पता नही होता वो इसका पूरा पाठ करके इसका शुभ फल ले सकते है| यह मंत्र इनका प्रभावशाली है कि लगातार 11 दिनों तक इसके 11 बार जाप करने से सभी ग्रहदोष दूर होते है और सभी मनोकामनाए पूर्ण होती है| 

आइए अब जानते है कि कौनसे नक्षत्र से कौनसा श्लोक संबंधित है:-

 

जैसे पहला नक्षत्र अश्विनी नक्षत्र और उसमे 4 पद आते है तो विष्णु सहस्त्रनाम के शुरु के 4 श्लोक क्रमशः हर एक पद के लिए आएंगे|

 

1.      अश्विनी नक्षत्र – श्लोक 1 से 4

2.      भरणीं नक्षत्र – श्लोक 5 से 8

3.      कृत्तिका नक्षत्र – श्लोक 9 से 12

4.      रोहिणी नक्षत्र – 13 से 16

5.      मृगशिरा नक्षत्र – 17 से 20

6.      आर्द्रा नक्षत्र – 21 से 24

7.      पुनर्वसु नक्षत्र – 25 से 28  

8.      पुष्य नक्षत्र – 29 से 32

9.      अश्लेषा नक्षत्र – 33 से 36

10.  मघा नक्षत्र – 37 से 40

11.  पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र – 41 से 44

12.  उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र – 45 से 48

13.  हस्त नक्षत्र – 49 से 52

14.  चित्रा नक्षत्र – 53 से 56

15.  स्वाति नक्षत्र – 57 से 60

16.  विशाखा नक्षत्र – 61 से 64

17.  अनुराधा नक्षत्र – 65 से 68

18.  ज्येष्ठा नक्षत्र – 69 से 72

19.  मूला नक्षत्र – 73 से 76

20.  पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र – 77 से 80

21.  उत्तरषाढा नक्षत्र – 81 से 84

22.  श्रवण नक्षत्र – 85 से 88

23.  धनिस्ठा नक्षत्र – 89 से 92

24.  सतभिषा नक्षत्र – 93 से 96

25.  पूर्वभाद्रा नक्षत्र – 97 से 100

26.  उत्तरभाद्र नक्षत्र – 101 से 104

27.  रेवती नक्षत्र – 105 से 108

 

 

 

 

 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नम:

 

ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः ।

भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः ।। 1 ।।

 

अर्थ:- जो स्वयं ही ब्रह्माण्ड है, सर्वत्र विद्यमान, जिसका यज्ञ में आह्वान किया जाता है, अतीत, वर्तमान और भविष्य के भगवान, सभी प्राणियों के निर्माता, वह जो सभी प्राणियों को पोषण देते हैं, वह जो सभी जड़ और चेतन वस्तुओ का रूप धारण करते हैं, सभी प्राणियों की  आत्मा, सभी प्राणियों के विकास और जन्म का कारण है|

 

पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमं गतिः।

अव्ययः पुरुष साक्षी क्षेत्रज्ञो अक्षर एव च ।। 2 ।।

 

अर्थ:- वह जो एक अत्यंत शुद्ध सार के साथ है, परमात्मा परम आत्मा, मुक्त आत्माओं द्वारा प्राप्त किया जाने वाला अंतिम लक्ष्य, जिसका विनाश नहीं हो सकता, वह जो नौ द्वारो वाले नगर में रहता है, सब कुछ देखनेवाला, वह जो शारीर रुपी क्षेत्र को तत्व से जानने वाला है, अविनाशी है|

 

योगो योग-विदां नेता प्रधान-पुरुषेश्वरः ।

नारसिंह-वपुः श्रीमान केशवः पुरुषोत्तमः ।। 3 ।।

 

अर्थ:- जो समरूपता की अवस्था में स्थित रहता है,योग की जानकारी रखने वालों का मार्गदर्शक, मूल प्रक्रति का ईश्वर, वह जिसका रूप मनुष्य और सिंह का है, वह जो हमेशा श्री के साथ रहता है,लंबे और सुंदर बालोंवाला, जो पुरुषों में सबसे उत्तम हो, जो सर्वश्रेष्ठ हो

 

सर्वः शर्वः शिवः स्थाणु: भूतादि: निधि: अव्ययः ।

संभवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभु: ईश्वरः ।। 4 ।।

 

अर्थ:- वो जो सब कुछ है, वो जो शुभ है, वह जो हमेशा शुद्ध है, आधार, अचल सत्य, पांच महान तत्वों का कारण, वह निधि जिसका विनाश नहीं हो सकता, वह जो अपनी स्वतंत्र इच्छा से उत्पन्न होता है, वह जो अपने भक्तों को सबकुछ देता है, वह जो पूरे संसार को नियंत्रित करता है, पांच महान तत्वों की उत्पत्ती का स्त्रोत, सर्वशक्तिमान भगवान, वह जो बिना किसी सहायता के कुछ भी कर सकता है

 

स्वयंभूः शम्भु: आदित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः ।

अनादि-निधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ।। 5 ।।

 

अर्थ:- वह जो खुद से प्रकट होता है, वह जो शुभ करनेवाला है, अदिति का पुत्र, वामन अवतार, वह जिसकी कमल की तरह आंखें है, वह जिसकी गर्जन करने वाली आवाज है, जिसका कोई आरम्भ और अंत नही है, जिसको सभी चीजों क्षेत्रो का अनुभव है, सभी कर्मो के फल देने वाला, अणु का रूप है|

 

 

अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभो-अमरप्रभुः ।

विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः ।। 6 ।।

 

अर्थ:- जिन्हें जाना ना जा सके, इन्द्रियों के स्वामी, जिसकी नाभि में जगत का कारण रूप विद्यमान है,अमर देवताओं के स्वामी, विश्व में क्रिया करना जिसका कर्म है, मनन करने वाले, संहार के समय सब प्राणियों की क्षीण करने वाले, अतिशय स्थूल, प्राचीन और स्थिर है|

 

अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः ।

प्रभूतः त्रिककुब-धाम पवित्रं मंगलं परं ।। 7।।

 

अर्थ:- जो इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नही किये जा सकते,जो सब काल में है, जिसका वर्ण श्याम है, जिसके नेत्र लाल हो, जो प्रलय काल में प्राणियों का संहार करते है, जो ज्ञान एश्वर्य आदि गुणों से संपन्न है, जो ऊपर नीचे और मध्य तीनों दिशाओ के धाम है, जो पवित्र है, जो सबसे उत्तम है और समस्त अशुभो को दूर करते है|

 

ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः ।

हिरण्य-गर्भो भू-गर्भो माधवो मधुसूदनः ।। 8 ।।

 

अर्थ:- सर्व भूतो के नियंता, जो सदा जीवित है, जो सबसे अधिक वृद्ध और बड़े है, सबसे प्रशंसा कने योग्य है, ईश्वर रूप में सब प्रजाओ के पति, ब्रह्मांड रूपी अंडे के भीतर व्याप्त होने वाले, पृथ्वी जिनके गर्भ में विद्यमान है, माँ अर्ताथ लक्ष्मी के धव या पति, मधु नामक दैत्य को मारने वाले|

 

ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः ।

अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृति: आत्मवान ।। 9 ।।

 

अर्थ:- सर्वशक्तिमान, शूरवीर, धनुष धारण करने वाला, बहुत से ग्रंथो को धारण करने का सामर्थ्य रखने वाला, जगत को लाँघ जाने वाला या गरुड़ पक्षी द्वारा गमन करने वाला, विस्तार करने वाला, जिससे उत्तम और कोई ना हो, जो दैतादिको से दबाया ना जा सके, प्राणियों के किये हुए पाप पुण्यो को जानने वाला, सर्वात्मक, अपनी ही महिमा में स्तिथ होने वाले|

 

सुरेशः शरणं शर्म विश्व-रेताः प्रजा-भवः ।

अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः ।। 10 ।।

 

अर्थ:- देवतओं के ईश, दीनो का दुःख दूर करने वाले, परमानंदस्वरूप, विश्व के कारण, जिनसे सम्पूर्ण प्रजा उत्पन होती है, प्रकाशस्वरूप, कालस्वरूप से स्थित हुए, व्याल( सर्प ) के समान ग्रहण करने में ना आ सकने वाले, प्रतीति रूप होने के कारण, सर्वरूप होने के कारण सभी के नेत्र है|

 

अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादि: अच्युतः ।

वृषाकपि: अमेयात्मा सर्व-योग-विनिःसृतः ।। 11 ।।

 

अर्थ:- अजन्मा, इश्वरो का भी ईश्वर, नित्य सिद्ध, सबसे श्रेष्ठ, सर्व भूतो के आदि कारण, अपनी स्वरूप सकती से च्युत ना होने वाले, धर्म रूप का वराह रूप, जिनकी आत्मा का माप नापा ना जा सके, सम्पूर्ण संबंधो से रहित|

 

वसु:वसुमनाः सत्यः समात्मा संमितः समः ।

अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ।। 12 ।।

 

अर्थ:- जो सब भूतो में बसते है और जिनमे सब भूत बसते है, जिनका मन प्रसस्त( श्रेष्ट ) है, सत्य स्वरूप, जो राग द्वेषादि से दूर है, समस्त पदार्थो से परिछिन्न, सदा समस्त विकारो से रहित, जो स्मरण किया जाने पर सदा फल देते है, ह्रदयस्थ कमल में व्याप्त होते है, जिनके कर्म धर्मरूप है, जिन्होंने धर्म क लिए ही रूप धारण किया है|

 

रुद्रो बहु-शिरा बभ्रु: विश्वयोनिः शुचि-श्रवाः ।

अमृतः शाश्वतः स्थाणु: वरारोहो महातपाः ।। 13 ।।

 

अर्थ:- दुःख को दूर भगाने वाले, बहुत से सिरों वाले, लोकों का भरण करने वाले, विश्व के कारण, जिनके नाम सुनने योग्य है, जिनका मरण नही होता, नित्य और स्थिर, जिनकी गोद श्रेष्ट है, जिनका तप महान है|

 

सर्वगः सर्वविद्-भानु:विष्वक-सेनो जनार्दनः ।

वेदो वेदविद-अव्यंगो वेदांगो वेदवित् कविः ।। 14 ।।

 

अर्थ:- जो सर्वत्र व्याप्त है, जो सर्ववित और भानु भी है, जिनके सामने कोई सेना नही टिक सकती, दुष्टजनों को नरकआदि में भेजने वाले, वेद रूप, वेद जानने वाले, जो किसी प्रकार ज्ञान से अधूरा ना हो, वेद जिनके अंगरूप है, वेदों को विचारने वाले, सबको देखने वाले|

 

लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृता-कृतः ।

चतुरात्मा चतुर्व्यूह:-चतुर्दंष्ट्र:-चतुर्भुजः ।। 15 ।।

 

अर्थ:- समस्त लोकों का निरिक्षण करने वाले, देवतओं के अध्यक्ष, धर्म और अधर्म को साक्षात देखने वाले, कार्यरूप से कृत और कारणरूप से अकृत, चार पृथक विभूतियों वाले, चार व्यूहों वाले, चार दाढो या सींगो वाले, चार भुजाओ वाले|

 

भ्राजिष्णु भोजनं भोक्ता सहिष्णु: जगदादिजः ।

अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः ।। 16 ।।

 

अर्थ:- एकरस प्रकाशस्वरूप, प्रकृति रूप भोज्य माया, पुरुष रूप से प्रकृति को भोगने वाला, दैत्यों को भी सहन करने वाला, जगत के आदि में उत्पन्न होने वाले, जिनमे पाप ण हो, ज्ञान वैराग्य व ऐश्वर्य से विश्व को जीतने वाले, समस्त भूतो को जीतने वाले, विश्व और योनि दोनों वही है, बार बार शरीरो में बसने वाले|

 

उपेंद्रो वामनः प्रांशु: अमोघः शुचि: ऊर्जितः ।

अतींद्रः संग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः ।। 17 ।।

 

अर्थ:- अनुजरूप से इंद्र के पास रहने वाले, भली प्रकार भजने योग्य है, तीनों लोकों को लांघने क्र बाद जो ऊँचे हो गये है, जिनकी चेष्टा व्यर्थ नही होती, स्मरण करने वालो को पवित्र करने वाले, अत्यंत बलशाली, जो बल और ऐश्वर्य में इंद्र से भी आगे है, प्रलय के समय सबका संग्रह करने वाले, जगत रूप और जगत का कारण, अपने स्वरूप को एकरूप से धारण करने वाले, प्रजा को नियमित करने वाले, अन्तकरण में स्थित होकर नियमन करने वाले|

 

वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः।

अति-इंद्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः ।। 18 ।।

 

अर्थ:- कल्याण की इच्छा वालो द्वारा जानने योग्य, सब विद्याओ को जानने वाले, सदा प्रत्यक्ष रूप होने के कारण, धर्म की रक्षा के लिए असुर योद्धाओ को मरते है, विद्या के पति, मधु के समान प्रसंता उत्पन करने वाले, इन्द्रयो से प्रे, मायावियो के भी स्वामी, जगत की उत्पति स्थिति और प्रलय के लिए तत्पर रहने वाले, सर्वशक्तिमान|

 

महाबुद्धि: महा-वीर्यो महा-शक्ति: महा-द्युतिः।

अनिर्देश्य-वपुः श्रीमान अमेयात्मा महाद्रि-धृक ।। 19 ।।

 

अर्थ:- सर्वबुद्धिमान, संसार की उत्पति के कारणरूप, अति महान शक्ति और सामर्थ्य के स्वामी, जिनकी बाह्य और अंतर ज्योति महान है, जिसे बताया ण जा सके, जिनमे श्री है, जिनकी आत्मा समस्त प्राणियों से अमेय है, मंदराचल और गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले|

 

महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः ।

अनिरुद्धः सुरानंदो गोविंदो गोविदां-पतिः ।। 20 ।।

 

अर्थ:- जिनका धनुस महान है, प्रलयकालीन जल में डूबी हुई पृथ्वी को धारण करने वाले, श्री के निवास स्थान, संतजनों के पुरुषार्थ साधनहेतु, प्रादुर्भाव के समय किसी से निरुद्ध ना होने वाले, देवतओं को आनंदित करने वाले, वाणी को प्राप्त करने वाले, गौपति|

 

मरीचि:दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः ।

हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः ।। 21 ।।

 

अर्थ:- तेजस्वियो के परम तेज, असुरो का दमन करने वाले, संसार भय को नस्त करने वाले, धर्म और अधर्मरूप सुंदर पंखो वाले, भुजाओ से चलने वालो में उत्तम, हिरण( स्वर्ण ) से समान नाभि वाले, सुंदर तप करने वाले, पद्म के समान सुंदर नाभि वाले, प्रजाओ के पिता|

 

अमृत्युः सर्व-दृक् सिंहः सन-धाता संधिमान स्थिरः ।

अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा ।। 22 ।।

 

अर्थ:- जिसकी मृत्यु ना हो, प्राणियों के सब कर्म – अकर्मआदि को देखने वाले, हनन करने वाले है, मनुष्यों को उनके कर्मो का फल देते है, फलो के भोगने वाले है, सदा एकरूप है, भक्तो के ह्रदय में रहने वाले और असुरो का संहार करने वाले है, दानवादिको से सहन नही किये जा सकते, श्रुति स्मृति से सबका अनुशासन करते है, सत्यज्ञानादि रूप आत्मा का विशेषरूप से श्रवण करने वाले, देवतओं के शत्रुओ को मारने वाले|

 

गुरुःगुरुतमो धामः सत्यः सत्य-पराक्रमः ।

निमिषो-अ-निमिषः स्रग्वी वाचस्पति: उदार-धीः ।। 23 ।।

 

अर्थ:- सब विद्याओ के उपदेष्टा और सबके जन्मदाता, ब्रह्मादि को ब्रह्मविद्या प्रदान करने वाले, परम ज्योति, सत्य- भाषणरूप, धर्मस्वरूप, जिनका पराक्रम सत्य या अमोघ है, जिनके नेत्र योगनिन्द्रा में मूंदे हुए है, मत्स्यरूप या आत्मरूप, वैजन्ती माला धारण करने वाले,विद्या के पति, सर्व पदार्थो को प्रत्यक्ष करने वाले|

 

अग्रणी: ग्रामणीः श्रीमान न्यायो नेता समीरणः ।

सहस्र-मूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात ।। 24 ।।

 

अर्थ:- मुमुक्षो को उत्तम पद पर ले जाने वाले, भूतग्राम का नेतृत्व करने वाले, जिनकी श्री अर्थात काँटी सबसे बढ़ी चढ़ी हुई है, न्यायस्वरूप, जगतरूप यंत्र को चलाने वाले, श्र्वासरूप से प्राणियों से चेष्टा करवाने वाले, सहस्त्र मूर्धा( सिर ) वाले, विश्व के आत्मा, सहस्त्र आँखों या इन्द्रियों वाले, सहस्त्र पद( पैर ) वाले|

 

आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः सं-प्रमर्दनः ।

अहः संवर्तको वह्निः अनिलो धरणीधरः ।। 25 ।।

 

अर्थ:- संसार चक्र का आवर्तन करने वाले, संसार चक्र से छूटे हुए, आच्छादन करने वाली अविद्या से ढंके हुए, अपने रूद्र और कालरुपो से सबका मर्दन करने वाले, दिन के प्रवर्तक है, हविका वहन करने वाले है, अनादि, वराहरूप से पृथ्वी को धारण करने वाले है|

 

सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृक्-विश्वभुक्-विभुः ।

सत्कर्ता सकृतः साधु: जह्नु:-नारायणो नरः ।। 26 ।।

 

अर्थ:- जिनकी कृपा अति सुंदर है, जिनक अन्तकरण रज और तम से दूषित नही है, विश्व को धारण करने वाले है, विश्व का पालन करने वाले है, हिरण्यगर्भादी रूप से विविध होते है, सत्कार करते अर्थात पूजते है, पूजितो से भी पूजित, साध्यमात्र के साधक है, अज्ञानियों को त्यागते और भक्तो को परम पद पर e जाने वाले, नर से उत्पन्न हुए तत्व नार है जो भगवान के अयन (घर) थे, नयन कर्ता है इसलिए सनातन परमात्मा नर कहलाता है|

 

असंख्येयो-अप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्ट-कृत्-शुचिः ।

सिद्धार्थः सिद्धसंकल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः ।। 27।।

 

अर्थ:- जिनमे संख्या अर्थात नाम रूप भेदादि नही हो, जिनका आत्मा अर्थात स्वरूप अप्रमेय है, जो सबसे अतिशय है,जो शासन करते है, जो मलहीन है, जिनका अर्थ सिद्ध हो, जिनका संकल्प सिद्ध हो, कर्ता को अधिकारानुसार फल देने वाले, सिद्धि के साधक|

 

वृषाही वृषभो विष्णु: वृषपर्वा वृषोदरः ।

वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुति-सागरः ।। 28 ।।

 

अर्थ:- जिनमे वृष(धर्म) जोकि अह(दिन) है वो स्थित है, जो भक्तो के लिए इच्छित वस्तुओ की वर्षा करते है, सब और व्याप्त रहने वाले, धर्म की तरफ जाने वाली सीढी, जिनका उदर मनो प्रजा की वर्षा करता है, बढ़ाने और पालना करने वाले, जो प्रपंच रूप से बढ़ते है, बढ़ते हुए भी पृथक ही रहते है, जिनमे समुद्र के समान श्रुतियाँ रखी हुई है| 

 

सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेंद्रो वसुदो वसुः ।

नैक-रूपो बृहद-रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः ।। 29 ।।

 

अर्थ:- जिनकी जगत की रक्षा करने वाली भुजाए अति सुंदर है, जो मुमुक्षो के ह्रदय में अति कठिनता से धारण किये जाते है, जिनमे वेदमयी वाणी का प्रादुर्भाव होता है, ईश्वरो के भी ईश्वर, वसु अर्थात धन देने वाले, दिया जाने वाला वसु(धन) भी व्ही है, जिनके अनेक रूप हो, जिनके वराह आदि वृहत(बड़े बड़े) रूप है, जो शिपि(पशु) में यनरूप में स्थित होते है, सबको प्रकाशित करने वाले|

 

ओज: तेजो-द्युतिधरः प्रकाश-आत्मा प्रतापनः ।

ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मंत्र:चंद्रांशु: भास्कर-द्युतिः ।। 30 ।।

 

अर्थ:- ओज, प्राण और बल को धारण करने वाले, जिनकी आत्मा प्रकाश स्वरूप है, जो अपनी किरणों से धरती को तप्त करते है, जो धर्म ज्ञान और वैराग्य से संपन्न है, जिनका ओंकाररूप अक्षर स्पष्ट है, मंत्रो से जानने योग्य, मनुष्यों को चंद्रमा की किरणों के समान आल्हादित करने वाले, सूर्य के तेज के समान धर्म वाले| 

 

अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिंदुः सुरेश्वरः ।

औषधं जगतः सेतुः सत्य-धर्म-पराक्रमः ।। 31 ।।

 

अर्थ:- समुन्द्रमंथन के समय जिनके कारण चंद्रमा की उत्पति हुई, भासित होने वाले, चंद्रमा के समान प्रजा का पालन करने वाले, देवताओ के ईश्वर, संसार रोग के औषध, लोकों के पारस्परिक असंभेद के लिए इनको धारण करने वाला सेतु, जिनके धर्म ज्ञान और पराक्रमादि गुण आदि सत्य है|

 

भूत-भव्य-भवत्-नाथः पवनः पावनो-अनलः ।

कामहा कामकृत-कांतः कामः कामप्रदः प्रभुः ।। 32 ।।

 

अर्थ:- भूत भविष्य और वर्तमान प्राणियों के नाथ है, पवित्र करने वाले, चलाने वाले है, प्राणों के आत्मभाव से ग्रहण करने वाले है, मोक्षकामी भक्तो और हिंसको की कामनाओ को नष्ट करने वाले है, सात्विक भक्तो की कामनाओ को पूर्ण करने वाले है, अत्यंत रूपवान है, पुरुषार्थ की आकांक्षा वालो से कामना किये जाते है, भक्तो की कामनाओ को पूरा करने वाले है, प्रकर्ष|

 

युगादि-कृत युगावर्तो नैकमायो महाशनः ।

अदृश्यो व्यक्तरूपश्च सहस्रजित्-अनंतजित ।। 33 ।।

 

अर्थ:- युगादि का आरम्भ करने वाले है, सतयुग आदि युगों का आवर्तन करने वाले है, अनेको मायाओ को धारण करने वाले है, कल्पान्त में संसार रूपी भोजन को ग्रसने वाले, समस्त ज्ञानेन्द्रियो के अविषय है, स्थूल रूप से जिनका रूप अव्यक्त है, युद्ध में सहस्त्रो देवशत्रुओ को जितने वाले है, अचिन्त्य शक्ति से समस्त भूतो को जीतने वाले है|

 

इष्टो विशिष्टः शिष्टेष्टः शिखंडी नहुषो वृषः ।

क्रोधहा क्रोधकृत कर्ता विश्वबाहु: महीधरः ।। 34 ।।

 

अर्थ:- यज्ञ द्वारा पूजे जाने वाले है, अन्तर्यामी, विद्वानों के ईष्ट, शिखण्ड जिनका शिरोभूषण है, भूतो को माया से बांधने वाले, कामनाओ की वर्षा करने वाले, साधुओ का क्रोध नष्ट करने वाले, क्रोध करने वाले दैत्यादिको का कर्तन करने वाले है, जिनके बाहू सब ओर है, पृथ्वी को धारण करने वाले है|

 

अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः ।

अपाम निधिरधिष्टानम् अप्रमत्तः प्रतिष्ठितः ।। 35 ।।

 

अर्थ:- भावविकारो से रहित रहने वाले, जगत की उत्पति आदि कर्मो से प्रसिद्ध, हिरण्यगर्भ रूप से प्रजा को जीवन देने वाले, देवता और दैत्यों के प्राण या जीवन देने वाले, वासव(इंद्र) के अनुज(वामन अवतार), जिसमे अप(जल) एकत्रित रहता है वो सागर है, जिसमे सब भुत स्थित है, क्रमानुसार फल देते हुए कभी चूकते नही है, जो अपनी महिमा में स्थित है|

 

स्कन्दः स्कन्द-धरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः ।

वासुदेवो बृहद भानु: आदिदेवः पुरंदरः ।। 36 ।।

 

अर्थ:- स्कंदन करने वाले है, स्कन्द अर्थात धर्ममार्ग को धारण करने वाले है, समस्त भूतो के जन्मादि धुर(बोझे) को धारण करने वाले है, इच्छित वर देने वाले है, आवह आदि सात वायुओ को चलाने वाले है, जो वसु भी है और देव भी है, अति बृहत किरणों से संसार को प्रकाशित करने वाले है, सबके आदि भी है और देव भी है, देवशत्रुओ के पूरो(नगर) का ध्वस करने वाले है|

 

अशोक: तारण: तारः शूरः शौरि: जनेश्वर: ।

अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः ।। 37 ।।

 

अर्थ:- शोकादि छः उर्मियो से रहित, संसार सागर से तारने वाले, भय से तारने वाले, पुरुषार्थ करने वाले, वासुदेव की संतान, जन अथात जीवो के ईश्वर, सबके आत्मरूप है, जिनके धर्म रक्षा क लिए सैकड़ो अवतार हुए है, जिनके हाथ में पद्म है, जिनके नेत्र पद्म समान है|

 

पद्मनाभो-अरविंदाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत ।

महर्धि-ऋद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुड़ध्वजः ।। 38 ।।

 

अर्थ:- हृदयरूप पद्म की नाभि के बीच में स्थित है, जिनकी आंख कमल के समान है, हृदयरूप पद्म के मध्य में उपासना करने वाले है, अपनी माया से शरीर धारण करने वाले है, जिनकी विभूति महँ है, प्रपंचरूप, जिनकी देह वृद्ध और पुरातन है, जिनकी अनेको महान आंखे है, जिनकी ध्वजा गरुड़ के चिन्ह वाली है|

 

अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः ।

सर्वलक्षण लक्षण्यो लक्ष्मीवान समितिंजयः ।। 39 ।।

 

अर्थ:- जिसकी कोई तुलना नही है, जो नाशवान शरीर में प्रयगात्मा रूप से भासते है, जिनसे सब डरते है, समस्त भूतो में जो संभव रखते है, यज्ञों में हवि का भाग हरण करते है, परमार्थस्वरूप, जिनके वक्ष स्थल में लक्ष्मी जी निवास करती है, समिति अर्थात युद्ध को जीतने वाले|

 

विक्षरो रोहितो मार्गो हेतु: दामोदरः सहः ।

महीधरो महाभागो वेगवान-अमिताशनः ।। 40 ।।

 

अर्थ:- जिनका क्षर अर्थात नाश नही होता, अपनी इच्छा से रोहितवर्ण मूर्ति का रूप धारण करने वाले, जिनसे परमानंद प्राप्त होता है, संसार के निमित्त और उपादान के कारण है, दाम लोकों का नाम है जिनके वे उदर में है, सबको सहन करने वाले, पर्वतरूप होकर मही को धारण करने वाले, हर यज्ञ में जिनको बड़ा भाग मिले, तीव्र गति वाले है, संहार के समय सारे संसार को खा जाने वाले है|

 

उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः ।

करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः ।। 41 ।।

 

अर्थ:- भव या संसार से ऊपर है, जगत की उत्पति के समय प्रकृति और पुरुष में प्रविष्ट होकर क्षुब्ध करने वाले, जो स्तुत्य पुरुषो से स्तवन किये जाते है और सर्वत्र जाते है, जिनके उदर में संसार रूपी श्री स्थित है, जो परम और ईशनशील है, सनासर की उत्पति के सबसे बड़े साधन है, जगत के उपादान और निमित्त, स्वतंत्र, विचित्र भुवनो की रचना करने वाले है, जिनका स्वरूप, सामर्थ्य या कृत्य नही जाना जा सकता, अपनी माया से स्वरूप को ढक देने वाले|

 

व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो-ध्रुवः ।

परर्रद्वि परमस्पष्टः तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः ।। 42 ।।

 

अर्थ:- ज्ञानमात्रस्वरूप, जिनमे सबकी व्यवस्था है, परम सत्ता, ध्रुवादिको को उनके कर्मो के अनुसार स्थान देते है, अविनाशी, जिनकी विभूति श्रेष्ठ है, परम और स्पस्ट है, परमानंदस्वरूप, सर्वत्र परिपूर्ण, जिनका दर्शन सर्वदा शुभ है|

 

रामो विरामो विरजो मार्गो नेयो नयो-अनयः ।

वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठ: धर्मो धर्मविदुत्तमः ।। 43 ।।

 

अर्थ:- अपनी इच्छा से रमणीय शरीर धारण करने वाले, जिनमे प्राणियों का विराम(अंत) होता है, विषय सेवन में जिनका राग नही रहा है, जिन्हें जानकर मुमुक्षजन अमर हो जाते है, ज्ञान से जीव को परमात्वभाव की तरफ ले जाने वाले, नेता, जिनका कोई और नेता नही है, विक्रमशाली, सभी शक्तिमानो में श्रेष्ठ, समस्त भूतो को धारण करने वाले, श्रुतिया और स्मृतिया जिनकी आज्ञास्वरूप है|

 

वैकुंठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः ।

हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः ।। 44।।

 

अर्थ:- जगत के आरम्भ में बिखरे हुए भूतो की परस्पर मिलाकर उनकी गति रोकने वाले, सबसे पहले होने वाले, प्राणवायुरूप होकर चेष्टा करने वाले है, प्रलय के समय प्राणियों के प्राणों का खंडन करते है, जिन्हें वेद प्रणाम करते है, प्रपंचरूप से विस्तृत है, ब्रह्मा की उत्पति के कारण है, देवतओं के स्त्रुओं को मरने वाले है, सब कार्यो को व्याप्त करने वाले है, गंध वाले है, जो कभी अपने स्वरूप से नीचे ना हो|

 

ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः ।

उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्व-दक्षिणः ।। 45 ।।

 

अर्थ:- ऋतु शब्द द्वारा कालरूप से लक्षित होते है, उनके नेत्र अति सुंदर है, सबकी गणना करने वाले है, हृदयाकाश के भीतर परम महिमा में स्थित रहने के स्वभाव वाले, भक्तो के सर्पं किये जाने वाले पुष्पादी को ग्रहण करने वाले, जिनके भय से सूर्य भी निकलता है, जिनमे सब भूत बसते है, सब कार्य बड़ी शीघ्रता से करते है, मोक्ष देने वाले है, जो समस्त कार्यो में कुशल है|

 

विस्तारः स्थावर: स्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम ।

अर्थो अनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः ।। 46 ।।

 

अर्थ:- जिनमे समस्त लोक विस्तार पते है, स्थावर और स्थाणु है, संवितस्वरूप, बिना अन्यथाभाव के ही संसार के कारण है, सबसे प्रार्थना किये जाने वाले है, जिनका कोई प्रयोजन नही है, जिन्हें महान कोष ढकने वाले है, जिनका सुखरूप महान भोग है, जिनका भोगसाधनरूप महान धन है|

 

अनिर्विण्णः स्थविष्ठो-अभूर्धर्म-यूपो महा-मखः ।

नक्षत्रनेमि: नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः ।। 47 ।।

 

अर्थ:- जीने कोई उदासीनता नही है, वैराजरूप से स्थित होने वाले है, अजन्मा, धर्म स्वरूप यूप से जिन्हें बांधा जाता है, जिनको अर्पित किये हुए मख(यज्ञ) महान होते है, सम्पूर्ण नक्षत्रमंडल के केंद्र है, चन्द्ररूप, समस्त कार्यो में समर्थ, जो समस्त विकारो के क्षीण हो जाने पर आत्मभाव में स्थित रहते है, सृष्टी आदि के लिए सम्यक चेष्टा रखते है|

 

यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः ।

सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमं ।। 48 ।।

 

अर्थ:- सर्वयज्ञस्वरूप, जो पूज्य है, मोक्षर्रोप फल देने वाले सबसे अधिक पूजनीय, तद्रूप, जो विधिरूप धर्म को प्राप्त करता है, जिनके अलावा कोई और गति नही है, जो प्राणियों के सम्पूर्ण कर्म को देखते है, स्वभाव से ही जिनकी आत्मा मुक्त है, जो सर्व है और ज्ञानरूप है, जो प्रकृष्ट अजन्य और सबसे बड़ा साधक ज्ञान है|

 

सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत ।

मनोहरो जित-क्रोधो वीरबाहुर्विदारणः ।। 49 ।।

 

अर्थ:- जिन्होंने अशुभ व्रत लिया है, जिनका मुख सुंदर है, शब्दादि स्थूल कारणों से रहित है, मेघ के समान गंभीर घोष वाले है, सदाचारियो को सुख देने वाले है, बिना प्रत्युपकार की इच्छा के ही उपकार करने वाले है, मन का हरण करने वाले है, क्रोध को जीतने वाले है, अति विक्र्मशालिनी बाहू के स्वामी, अधार्मिको को विदीर्ण करने वाले है|

 

स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत ।

वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः ।। 50 ।।

 

अर्थ:- जीवो को माया से आत्मज्ञानरूप जाग्रति से रहित करने वाले है, जगत की उत्पति स्थिति और लय के कारण है, सर्वव्यापी, जो विभिन्न विभूतियों के द्वारा नाना प्रकार से स्थित है, जो संसार की उत्पति उनति और विपति आदि के अनेक कर्म करते है, जिनमे सब कुछ बसा हुआ है, भक्तो के स्नेही, वत्सो का पालन करने वाले, रत्न जिनके गर्भरूप है, जो धनो के स्वामी है|

 

धर्मगुब धर्मकृद धर्मी सदसत्क्षरं-अक्षरं ।

अविज्ञाता सहस्त्रांशु: विधाता कृतलक्षणः ।। 51 ।।

                          

अर्थ:- धर्म का गोपन(रक्षा) करने वाले है, धर्म की मर्यादा के अनुसार आचरण करने वाले है, धर्म को धारण करने वाले है, सत्यस्वरूप परब्रह्मा, प्रपंचरूप अपर ब्रह्मा, सर्ब भूत, कूटस्थ, वासना को ना जानने वाला, जिनके तेज से प्रज्वलित होकर सूर्य तपता है, समस्त भूतो और पर्वतों को धारण करने वाले, नित्यसिद्ध चैतन्यस्वरूप|

 

गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः ।

आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद गुरुः ।। 52 ।।

 

अर्थ:- जो किरणों के बीच में सूर्यरूप से स्थित है, जो समस्त प्राणियों में स्थित है, जो सिंह के समान पराक्रमी है, भूतो के महान ईश्वर है, जो भूतो को ग्रहण करते है और देव भी है, जो महान ज्ञानयोग और एश्वर्य से महिमान्वित होते है, देवो के ईश है, देवतओं के पालक इंद्र के भी शासक है|

 

उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः ।

शरीर भूतभृद्भोक्ता कपींद्रो भूरिदक्षिणः ।। 53 ।।

 

अर्थ:- जो संसार बंधन से मुक्त है, गौओ के पालक है, समस्त भूतो के पालक और जगत के रक्षक है, जो केवल ज्ञान से जाने जाते है, जो काल से भी पहले रहते है, शरीर की रचना करने वाले भूतो के पालक, पालन करने वाले, वानरों के स्वामी, जिनकी बहुत सी दक्षिणा रहती है|

 

सोमपो-अमृतपः सोमः पुरुजित पुरुसत्तमः ।

विनयो जयः सत्यसंधो दाशार्हः सात्वतां पतिः ।। 54 ।।

 

अर्थ:- जो समस्त यज्ञो में देवतारूप से सोमपान करते है, आत्मरूप अमृतरस का पण करने वाले, चंद्रमा(सोम) रूप से औषधियों का पोषण करने वाले, पुरु अर्थात बहुतो को जीतने वाले, विश्वरूप अर्थात पुरु और उत्कृष्ट अर्थात सतम है, दुष्ट प्रजा को विनय अर्थात दंड देने वाले, सब भूतो को जीतने वाले, जिनकी संघा अर्थात संकल्प सत्य है, जो दशार्ह कुल में उत्पन्न हुए है, सात्वतो(वैष्णवों) के स्वामी|

 

जीवो विनयिता-साक्षी मुकुंदो-अमितविक्रमः ।

अम्भोनिधिरनंतात्मा महोदधिशयो-अंतकः ।। 55 ।।

 

अर्थ:- क्षेत्रज्ञरूप से प्राण धारण करने वाले, प्रजा की विनयिता लो साक्षात देखने वाले, मुक्ति देने वाले, जिनका विक्रम(शूरवीरता) अतुलित है, जिनमे अम्भ(देवता) रहते है, जो देश काल और वस्तु से अपरिच्छिन्न है, जो समुन्द्र में शयन करते है, भूतो का अंत करने वाले है|

 

अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः ।

आनंदो नंदनो नंदः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः ।। 56 ।।

 

अर्थ:- अजन्मा, मह(पूजा) के योग्य, नित्यसिद्ध होने के कारण स्वभाव से ही उत्पन्न नही होते, जिन्होंने शत्रुओ को जीता है, जो अपने ध्यानमात्र से ध्यानियो को प्रमुदित करते है, आनंदस्वरूप, आनंदित करने वाले, सब प्रकार की सिद्धियों से संपन्न, जिनके धर्म ज्ञानादि गुण सत्य है, जिनके तीन विक्रम(डग) तीनों लोकों में क्रांत(व्याप्त) हो गये है|

 

महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः ।

त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाश्रृंगः कृतांतकृत ।। 57 ।।

 

अर्थ:- जो ऋषि रूप से उत्पन्न हुए कपिल है, कृत(जगत) और ज्ञ(आत्मा) है, मेदिनी(पृथ्वी) के पति है, जिनके तीन पद है, जागृत स्वप्न और सुषुप्ति इन तीन अवस्थाओ के अध्यक्ष, मत्स्य अवतार, कृत(जगत) का अंत करने वाले है|

 

महावराहो गोविंदः सुषेणः कनकांगदी ।

गुह्यो गंभीरो गहनो गुप्तश्चक्र-गदाधरः ।। 58 ।।

 

अर्थ:- महान है और वराह है, गो अर्थात वाणी से प्राप्त होने वाले है, जिनकी पार्षदरूप सुंदर सेना है, जिनके कनकमय(सोने के) अंगद(भुजबंद) है, गुहा यानि हृदयाकाश में छिपे हुए है, जो गंभीर है, कठिनता से प्रवेश किये जाने योग्य है, जो वाणी और मन के अविषय है, मन रूपी चक्र और बुद्धि रूपी गदा को लोक रक्षा हेतु धारण करने वाले|

 

वेधाः स्वांगोऽजितः कृष्णो दृढः संकर्षणो-अच्युतः ।

वरूणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः ।। 59 ।।

 

अर्थ:- विधान करने वाले है, कार्य करने में स्वयं ही अंग है, अपने अवतारों में किसी से नही जीते गये, कृष्णद्वेपायण, जिनके स्वरूप सामर्थ्यादि की कभी च्युति नही होती, जो एक साथ ही आकर्षण करते है और पद च्युत नही होते, अपनी किरणों का संवरण करने वाले सूर्य है, वरुण के पुत्र वसिष्ठ या अगस्त्य, वृक्ष के समान अचल भाव से स्थित, हृदय कमल में चिन्तन किये जाते है, सृष्टि स्थिति और अंत ये तीनों कर्म मन से करने वाले|

 

भगवान भगहानंदी वनमाली हलायुधः ।

आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णु:-गतिसत्तमः ।। 60 ।।

 

अर्थ:- सम्पूर्ण ऐश्वर्य धर्म यश श्री ज्ञान और वैराग्य जिनमे है, संहार के समय ऐश्वर्यादि का हनन करने वाले, सुखस्वरूप, वैजन्ती नाम की वनमाला धारण करने वाले है, जिनका आयुध(शस्त्र) ही हल है, अदिति के गर्भ से उत्पन्न होने वाले, सूर्यमंडलान्तर्गत् ज्योति में स्थित, शितौष्णादि द्वंदों को शं करने वाले, गति है और सर्वश्रेष्ठ है|

 

सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः ।

दिवि:स्पृक् सर्वदृक व्यासो वाचस्पति:अयोनिजः ।। 61 ।।

 

अर्थ:- जिनका इन्द्र्यादिमय सुंदर शारंग धनुष है, जिनका परशु अखंड है, सन्मार्ग के विरोधियो के लिए दारुण(कठोर) है, भक्तो को द्रविण(इच्छित धन) देने वाले, दिव(स्वर्ग) का स्पर्श करने वाले है, सम्पूर्ण ज्ञानो का विस्तार करने वाले है, विद्या के पति और जननी से जन्म न लेने वाले है|

 

त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक ।

संन्यासकृत्-छमः शांतो निष्ठा शांतिः परायणम ।। 62 ।।

 

अर्थ:- तीन सामो द्वारा समागम करने वालो से स्तुति किये जाने वाले है, सामगान करने वाले है, सामवेद, परमानंदस्वरूप ब्रह्मा, संसार रूप रोग की औषध, संसाररूप रोग से छुड़ाने वाली विद्या का उपदेश देने वाले है, मोक्ष के लिए संन्यास की रचना करने वाले है, सन्यासियों को ज्ञान के साधन शम का उपदेश देने वाले है, विषयसुखो में अनासक्त रहने वाले, प्र्ल्कल में प्राणी सर्वथा जिनमे वस् करते है, सम्पूर्ण अविद्या की निवृति, पुनरावृति की शंका से रहित परम उत्कृष्ट स्थान है|

 

शुभांगः शांतिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः ।

गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ।। 63 ।।

 

अर्थ:- सुंदर शरीर धारण करने वाले है, शांति देने वाले है, आरम्भ में भूतो को रचने वाले है, कु अर्थात पृथ्वी में मुदित होने वाले है, कु अर्थात पृथ्वी के वलन करने से जल कुवल कहलाता है उसमे शयन करने वाले है, गौओ के हितकारी है, गो अर्थात भूमि के पति है, जगत के रक्षक है, वृष अर्थात धर्म जिनकी दृष्टी है, जिन्हें वृष अर्थात धर्म प्रिय है|

 

अनिवर्ती निवृत्तात्मा संक्षेप्ता क्षेमकृत्-शिवः ।

श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतां वरः ।। 64 ।।

 

अर्थ:- देवासुरसंग्राम से पीछे न हटने वाले है, जिनकी आत्मा स्वभाव से ही विषयों से निवृत है, संहार के समय विस्तृत जगत को सूक्ष्मरूप से संक्षिप्त करने वाले है, प्राप्त किये पदार्थ की रक्षा करने वाले है, अपने नामस्मरणमात्र से पवित्र करने वाले है, जिनके वक्षस्थल में श्रीवत्स नमक चिन्ह है, जिनके वक्षस्थल में कभी न नष्ट होने वाली श्री वास करती है, श्री के पति, ब्रह्मादि श्रीमानों में प्रधान है|

   

श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः ।

श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमान्-लोकत्रयाश्रयः ।। 65 ।।

 

अर्थ:- भक्तो को श्री देते है इसीलिए श्रीद है, जो श्री के ईश है, जो श्रीमानों में निवास करते है, जिनमे सम्पूर्ण श्रिया एकत्रित है, जो समस्त भूतो को विविध प्रकार की श्रिया देते है, जिन्होंने श्री को छाती में धारण किया हुआ है, भक्तो को श्रीयुक्त करने वाले है, जिनका स्वरूप कभी न नष्ट होने वाले सुख को प्राप्त कराता है, जिनमे श्रिया है, जो तीनों लोकों के आश्रय है|

 

स्वक्षः स्वंगः शतानंदो नंदिर्ज्योतिर्गणेश्वर: ।

विजितात्मा विधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः ।। 66 ।।

 

अर्थ:- जिनकी आंखे कमल के समान सुंदर है, जिनके अंग सुंदर है, जो परमानंद स्वरूप उपाधि भेद से सैकड़ो प्रकार के होते है, परमानंदस्वरूप, ज्योतिर्गणों के ईश्वर, जिन्होंने आत्मा अर्थात मन को जीत लिया है, जिनका स्वरूप किसी के द्वारा विधिरूप से नही कहा जा सकता, जिनकी कीर्ति सत्य है, जिन्हें कोई संशय नही है|

 

उदीर्णः सर्वत:चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः ।

भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः ।। 67 ।।

 

अर्थ:- जो सब प्राणियों से उत्तीर्ण है, जो अपने चैतन्यरूप से सबको देखते है, जिनका कोई ईश नही है, जो नित्य होने पर भी किसी विकार को प्राप्त नही होते, लंका जाते समय समुन्द्रतट पर भूमि पर सूए थे, जो अपने अवतारों से पृथ्वी को भूषित कर रहे है, समस्त विभूतियों के कारण है, जो शोक से प्रे है, जो स्मरणमात्र से भक्ति का शोक नष्ट कर दे|

 

अर्चिष्मानर्चितः कुंभो विशुद्धात्मा विशोधनः ।

अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः ।। 68 ।।

 

अर्थ:- जिनकी अर्चियो(किरणों) से सूर्य चंद्रादि अर्चिष्मान हो रहे है, जो सम्पूर्ण लोकों में अर्चित(पूजित) है, कुम्भ(घड़े) के समान जिनमे सब वस्तुए स्थित है, तीनों गुणों से अतीत होने के कारण विशुद्ध आत्मा है, अपने स्मरण मात्र से पापो का नाश करने वाले है,शत्रुओ द्वारा कभी ण रोके जाने वाले, जिनका कोई विरुद्ध पक्ष नही है, जिनका द्युमन(धन) श्रेष्ठ है, जिनका विक्रम अपरिमित है|

 

कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः ।

त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः ।। 69 ।।

 

अर्थ:- कालनेमि नमक असुर का हनन करने वाले, जो शूर है, जो शूरकुल में उत्पन्न हुए है, इंद्र आदि शूरवीरो के भी शासक, तीनों लोकों की आत्मा है, जिनकी आज्ञा से तीनों लोक अपना कार्य करते है, ब्रह्मा विष्णु और शिव नाम की शक्तिया केश है उनसे युक्त होने वाले, केशी नामक असुर के मरने वाले,अविद्यारूप कारण सहित संसार को हर लेते है|

 

कामदेवः कामपालः कामी कांतः कृतागमः ।

अनिर्देश्यवपुर्विष्णु: वीरोअनंतो धनंजयः ।। 70 ।।

 

अर्थ:- कामना किये जाते है इसीलिए काम भी है और देव भी है, कमियों की कामनाओ का पालन करने वाले है, पूर्णकाम है, परम सुंदर देह वाले है, जिन्होंने श्रुति स्मृति आदि आगम(शास्त्र) रचे है, जिनका रूप निर्दिष्ट नही किया जा सकता, जिनकी प्रचुर कांति पृथ्वी और आकाश को व्याप्त करके स्थित है, गति आदि से युक्त है,देश काल वस्तु सर्वात्मा आदि से अपरिछिन्न, अर्जुन के रूप में जिन्होंने दिग्विजय के समय बहुत सा धन जीता था|

 

ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृत् ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः ।

ब्रह्मविद ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः ।। 71 ।।

 

अर्थ:- जो तप वेद ब्रहमांड और ज्ञान के हितकारी है, तपादि के करने वाले है, ब्रह्मारूप से सबकी रचना करने वाले है, बड़े और बढ़ानेवाले है, तपादि को बढ़ाने वाले है, वेद और वेद के अर्थ को यथावत जानने वाले है, ब्राह्मण रूप, ब्रह्मा के शेषभूत जिनमे है,जी अपने अत्मभुत वेदों को जानते है, जो ब्राह्मणों को प्रिय है|

 

महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः ।

महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः ।। 72 ।।

 

अर्थ:- जिनका डग महान है, जगत की उत्पति जैसे जिनके कर्म महान है, जिनका तेज महान है, जो महान उरग(वासुकी सर्परूप) है, जो महान क्रतु(यज्ञ) है, महान है और लोक संग्रह के लिए यज्ञानुष्ठान करने से यज्वा भी है, महान है और यज्ञ है, महान है और हवि है| 

 

स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः ।

पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः ।। 73 ।।

 

अर्थ:- जिनकी सब स्तुति करते है लेकिन स्वयं किसी की स्तुति नही करते, जिनकी सभी स्तुति करते है, वह गुण कीर्तन है जिससे उन्ही की स्तुति की जाती है, स्तवन क्रिया, सर्वरूप होने के कारण स्तुति करने वाले भी स्वयं है, जिन्हें रणप्रिय है, सो समस्त कामनाओ और शक्तियों से सम्पन्न है, जो केवल पूर्ण ही नही बल्कि सबको संपति से पूर्ण करने वाले है, स्मरण मात्र से पापो का क्षय करने वाले है|

 

मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः ।

वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः ।। 74 ।।

 

अर्थ:- जिनका मन वेग समान तीव्र है, जो चोदह विद्याओ और वेद विधाओ के कर्ता और वक्ता है, स्वर्ण जिनका वीर्य है, जो खुले हाथ से धन देते है, जो भक्तो को मोक्षरूप उत्कृष्ट फल देते है, वासुदेव जी के पुत्र, जिनमे सब भूत बसते है, जो सब पदार्थो में सामान्य भाव से बसते है, जो ब्रह्मा को अर्पण किया जाता है|

 

सद्गतिः सकृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः ।

शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः ।। 75 ।।

 

अर्थ:- जिनकी गति यानि बुद्धि श्रेष्ट है, जिनकी जगत की उत्पति आदि कृति श्रेष्ठ है, सजातीय विजातीय भेद से रहित अनुभूति है, जो अबाधित और बहुत प्रकार से भासित है, सत्पुरुषो के श्रेष्ठ स्थान है, जिनकी सेना शूरवीर है और हनुमान जैसे शूरवीर उनकी सेना है, यदुवंशियो में प्रधान है, विद्वानों के आश्रय है, जिनके यामुन अर्थात यमुना सम्बन्धी सुंदर है|

 

भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयो-अनलः ।

दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरो-अथापराजितः ।। 76 ।।

 

अर्थ:- जिनमे सर्वभूत मुख्य रूप से निवास करते है, जगत को माया से आच्छादित करते है और देव भी है, सम्पूर्ण प्राण जिस जीवरूप आश्रय में लीं हो जाते है, जिनकी शक्ति और सम्पति की समाप्ति नही है, धर्मविरुद्ध मार्ग में रहने वालो का दर्प नष्ट करते है, धर्म मार्ग में रहने वालो को दर्प(गर्व) देते है, अपने आत्मारूप अमृत का आखादन करने के कारण नित्य प्रमुदित होते है, जिन्हें बड़ी कठिनता से धारण किया जाता है, जो किसी से पराजित नही होते|

 

विश्वमूर्तिमहार्मूर्ति:दीप्तमूर्ति: अमूर्तिमान ।

अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः ।। 77 ।।

 

अर्थ:- विश्व जिनकी मूर्ति है, जिनकी मूर्ति बहुत बड़ी है, जिनकी मूर्ति दिप्तमति है, जिनकी कोई कर्मजन्य मूर्ति नही है, अवतारों में लोकों का  करने उपकार वाली अनेको मुर्तिया धारण करते है, जो व्यक्त नही होते, जिनकी विक्ल्पजन्य अनेक मुर्तिया है, जो सैकड़ो मुख वाले है|

 

एको नैकः सवः कः किं यत-तत-पद्मनुत्तमम ।

लोकबंधु: लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः ।। 78 ।।

 

अर्थ:- जो सजातीय विजातीय और बाकी भेदों से शून्य है, जिनके माया के अनेक रूप है, जो यज्ञ है जिससे सोम निकाला जाता है, सुखस्वरूप, जो विचार करने योग्य है, जिनसे सब भूत उत्पन्न होते है, जो विस्तार करता है, वह पद है और उससे श्रेष्ठ कोई नही है इसीलिए अनुतम भी है, जिनमे सब लोक बंधे रहते है, जो लोकों से याचना किये जाते है और उनपर शासन करते है, मधुवंश में उत्पन्न होने वाले है, जो भक्तो क प्रति स्नेहयुक्त है|

 

सुवर्णोवर्णो हेमांगो वरांग: चंदनांगदी ।

वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरऽचलश्चलः ।। 79 ।।

 

अर्थ:- जिनका सुवर्ण के समान है, जिनका शरीरी हेम(सुवर्ण) के समान है, जिनके अंग वर(सुंदर) है, जो चंदनो और अंगदो(भुजबंद) से विभूषित है, धर्म की रक्षा के लिए दैत्यवीरो का हनन करने वाले है, जिनके समान कोई नही है, जो समस्त विषयों से रहित होने के कारण शून्य के समान है, जिनकी आशिष धृत यानि विगलित है, जो किसी तरह से विचलित नही होते, जो वायु से चलते है|

 

अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक ।

सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः ।। 80 ।।

 

अर्थ:- जिन्हें अनात्म वस्तुयों में आत्माभिमान नही है, जो भक्तो को आदर मान देते है, जो सबके माननीय पूजनीय है, चोदाहों लोकों के स्वामी है, तीनों लोकों को धारण करने वाले है, जिनकी मेधा अर्थात प्रजा सुंदर है, मेघ अर्थात यज्ञ में उत्पन्न होने वाले है, कृतार्थ है, जिनकी मेधा सत्य है, जो अपने सम्पूर्ण अंशो से पृथ्वी को धारण करते है|

 

तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः ।

प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकश्रृंगो गदाग्रजः ।। 81 ।।

 

अर्थ:- अदित्यरूप से सदा तेज की वर्षा करते है, पृथ्वी को धारण करने वाले है, समस्त शास्त्रधारियों में श्रेष्ठ भक्तो द्वारा समर्पित किये हुए पुष्पादि ग्रहण करने वाले, अपने अधीन करके सबका निग्रह करते है, जिनका नाश नही होता, चार सींगवाले है, मंत्र से पहले ही प्रकट होते है|

 

चतुर्मूर्ति: चतुर्बाहु:श्चतुर्व्यूह:चतुर्गतिः ।

चतुरात्मा चतुर्भाव:चतुर्वेदविदेकपात ।। 82 ।।

 

अर्थ:- जिनकी चार मुर्तिया है, जिनकी चार भुजाए है, जिनके चार व्यूह है, जिनके चार आश्रम और चार वर्णों की गति है, राग द्वेष से रहित जिनका मन चतुर है, जिनसे धर्म कर्म काम और मोक्ष पैदा होते है, चारो वेदों जो जानने वाले, जिनका एक पाद है|

 

समावर्तो-अनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः ।

दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा ।। 83 ।।

 

अर्थ:- संसार चक्र को भली प्रकार घुमाने वाले है, जिनका मन विषयों से निवृत है, जो किसी से जीते नही जा सकते, जिनकी आज्ञा का उलंघन सूर्यादि भी नही कर सकते, दुर्लभ भक्ति से प्राप्त होते है, कठिनता से जाने जाते है, कई विघ्नों से आहत हुए पुरुषो द्वारा कठिनता से प्राप्त किये जाते है, जिन्हें बड़ी कठिनता से चित में बसाया जाता है, दुष्ट मार्ग में चलने वालो को मारते है|

 

शुभांगो लोकसारंगः सुतंतुस्तंतुवर्धनः ।

इंद्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः ।। 84 ।।

 

अर्थ:- सुंदर अंगो से ध्यान किये जाते है, लोकों के सार है, जिनका तंतु- यह विस्तृत जगत सुंदर है, उसी तंतु को बढ़ाते या काटते है, जिनका कर्म इंद्र के कर्म के समान ही है, जिनके कर्म महान है, जिन्होंने धर्म रूप कर्म किया है, जिन्होंने वेदरूप आगम बनाया है|

 

उद्भवः सुंदरः सुंदो रत्ननाभः सुलोचनः ।

अर्को वाजसनः श्रृंगी जयंतः सर्वविज-जयी ।। 85 ।।

 

अर्थ:- जिनका जन्म नही होता, विश्व से बढकर सोभाग्यशाली, शुभ उन्दन(आर्द्रभाव) करते है, जिनकी नाभि रत्न का समान सुंदर है, जिनके लोचन सुंदर है, ब्रह्मा आदि पूजनीयो के भी पूजनीय है, याचको को वाज(अन्न) देते है, प्रलय समुन्द्र में सींगवाले मत्स्यविशेष का रूप धारण करने वाले है, शत्रुओ को अतिशय से जीतने वाले है, जो सर्ववित और जयी है|

 

सुवर्णबिंदुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः ।

महाह्रदो महागर्तो महाभूतो महानिधः ।। 86 ।।

 

अर्थ:- जिनके अवयव सुवर्ण के समान है, जो राग द्वेषादि और देवशत्रुओ से क्षोभित नही होते, ब्रह्मादि समस्त वागीश्वरो के भी ईश्वर है, अक बड़े सरोवर समान है, जिनकी माया गर्त(गड्ढे) के समान दुस्तर है, तीनों काल से विभाग रहित स्वरूप, जो महान है और निधि भी है|

 

कुमुदः कुंदरः कुंदः पर्जन्यः पावनो-अनिलः ।

अमृतांशो-अमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः ।। 87 ।।

 

अर्थ:- पृथ्वी को उसका भार उतारते हुए मोदित करते है, कुंद पुष्प के समान सुध फल देते है, कुंद के समान सुंदर अंगवाले है, मेघ के समान कामनाओ की वर्षा करने वाले है, स्मरणमात्र से पवित्र करने वाले है, जो इल(प्रेरणा करने वाला) से रहित है, अमृत का भोग करने वाले है, जिनका शरीर मरण से रहित है, जो सब कुछ जानते है, सब ओर नेत्र शिर और मुख वाले है|

 

सुलभः सुव्रतः सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः ।

न्यग्रोधो औदुंबरो-अश्वत्थ:चाणूरांध्रनिषूदनः ।। 88 ।।

 

अर्थ:- केवल समर्पित भक्ति से सुखपूर्वक मिल जाते है, जो सुंदर व्रत(भोजन) करते है, जिनकी सिद्धि दुसरे के अधीन नही है, देवतओं के शत्रुओ को जीतने वाले है, देवताओ के शत्रुओ को तपाने वाले है, जो नीचे की और उगते है और सबके ऊपर विराजमान है, अम्बर से भी ऊपर है, कल भी रहने वाला नही है, चाणूर नमक अन्ध्र जाति के वीर को मारने वाले है|

 

सहस्रार्चिः सप्तजिव्हः सप्तैधाः सप्तवाहनः ।

अमूर्तिरनघो-अचिंत्यो भयकृत्-भयनाशनः ।। 89 ।।

 

अर्थ:- जिनकी सहस्त्र अर्चिया(किरणे) है, जिनकी अग्नि रुपी सात जिह्वा है, जिनकी सात ऐधाए है अर्थात दिप्तिया है, सात घोड़े(सुर्यरूप) जिनके वाहन है, जो मुर्तिहीन है, जिनमे अघ(दुःख) या पाप नही है, सब प्रमाणों के अविषय है, भक्तो का भय काटने वाले है, धर्म का पालन करने वालो का भय नष्ट करने वाले है|

 

अणु:बृहत कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान् ।

अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः ।। 90 ।।

 

अर्थ:- जो अत्यंत सूक्ष्म है, जो महान से भी अत्यंत महान है, जो अस्थूल है, जो सर्वात्मक है, जो सत्व रज और तम गुणों के अधिष्ठाता है, जिनमे गुणों का अभाव है, जो अंग शब्द शरीर और स्पर्श से रहित है और महान है, जो किसी से भी धारण नही किये जाते, जो स्वयं अपने आप से ही धारण किये जाते है, जिनका ताम्रवर्ण मुख अति सुंदर है, जिनका वंश सबसे पहले हुआ है, अपने वंशर्रोप प्रपंच को बढ़ाने अथवा नष्ट करने वाले|

 

भारभृत्-कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः ।

आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ।। 91 ।।

 

अर्थ:- अनंतादिरूप से पृथ्वी का भर उठाने वाले है, सम्पूर्ण वेदों में जिनका कथन है, योग ज्ञान को कहते है उसी से प्राप्त होने वाले है, जो अंतरायरहित है, जो सब कामनाए देते है, जो समस्त भटकते हुए पुरुषो के लिए आश्रम के समान है, जो समस्त अविवेकियो को संतप्त करते है, जो सम्पूर्ण प्रजा को क्षाम अर्थात क्षीण करते है, जो संसारवृक्षरूप है और जिनके छंद रूप सुंदर पत्ते है, जिनके भय से पत्ते चलते है|

 

धनुर्धरो धनुर्वेदो दंडो दमयिता दमः ।

अपराजितः सर्वसहो नियंता नियमो यमः ।। 92 ।।

 

अर्थ:- जिन्होंने राम के रूप में महान धनुष धारण किया था, जो दशरथकुमार धनुर्वेद जानते है, जो दमन करने वालो के लिए दंड है, जो यम और रजा के रूप में प्रजा का दमन करते है, दंडकार्य और उसका फल दम, जो शत्रुओ से पराजित नही होते, समस्त कर्मो में समर्थ है, सबको अपने अपने कार्यो में नियुक्त करते है, जिनके लिए कोई नियम नही है, जिनके लिए कोई यम अर्थात मृत्यु नही है|

 

सत्त्ववान सात्त्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः ।

अभिप्रायः प्रियार्हो-अर्हः प्रियकृत-प्रीतिवर्धनः ।। 93 ।।

 

अर्थ:- जिनमे शूरता-पराक्रम आदि सत्व है, जिनमे सत्वगुण प्रधानता से स्थित है, सभी चीनो में साधू है, जो सत्य है और धर्मपरायण भी है, प्रलय के समय सनासर जिनके सम्मुख जाता है, जो पूजा का साधनों में पूजनीय है, जो स्तुति आदि के द्वारा भजने वालो का प्रिय करते है, जो भजने वालो की प्रीति भी बढ़ाते है|

 

विहायसगतिर्ज्योतिः सुरुचिर्हुतभुग विभुः ।

रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः ।। 94 ।।

 

अर्थ:- जिनकी गति अर्थात आश्रय आकाश है, जो स्वयं ही प्रकाशित होते है, जिनकी रूचि सुंदर है, जो यज्ञ की आहुतियो को भोगते है, जो सर्वत्र वर्तमान है और तीनों लोकों के प्रभु है, जो रसो को ग्रहण करते है, जो विविध प्रकार से शुसोभित होते है, जो श्री(शोभा) को जन्म देते है, सम्पूर्ण जगत का प्रसव(उत्पत्ति) करने वाले है, रवि जिनका लोचन अर्थात नेत्र है|

 

अनंतो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः ।

अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकधिष्ठानमद्भुतः ।। 95।।

 

अर्थ:- जिनमे नित्य सर्वगत और देशकालपरिच्छेद का अभाव है, जो हवन किये हुए को भोगते है, जो जगत का पालन करते है, जो भक्तो को मोक्षरूप फल देते है, जो धर्मरक्षा के लिए बारबार जन्म लेते है, जो सबसे आगे उत्पन्न होते है, जिन्हें सर्वकामनाए प्राप्त होने के कारण अप्राप्ति का खेद नही है, साधुओ को अपने सम्मुख क्षमा करते है, जिनके आश्रय में तीनों लोक स्थित है|

 

सनात्-सनातनतमः कपिलः कपिरव्ययः ।

स्वस्तिदः स्वस्तिकृत स्वस्ति स्वस्तिभुक स्वस्तिदक्षिणः ।। 96 ।।

 

अर्थ:- काल भी जिनका एक विकल्प है, जो ब्रह्मादि सनातानो से भी अत्यंत सनातन है, बडवानलरूप में जिनका वर्ण कपिल है, जो सूर्यरूप में जल को अपनी किरणों से पीते है, प्रलयकाल में जगत में लीं होते है, भक्तो को स्वस्ति अर्थात मंगल देते है, जो स्वस्ति ही करते है, जो परमानंदस्वरूप है, जो स्वस्ति भोगते है और भक्तो की स्वस्ति की रक्षा करते है, जो स्वस्ति करते में समर्थ है|

 

अरौद्रः कुंडली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः ।

शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः ।। 97 ।।

 

अर्थ:- कर्म राग और कोप जिनमे ये तीनों रौद्र नही है, सूर्यमंडल के समान कुंडल धारण किये हुए है, सम्पूर्ण लोकों को रक्षा के लिए मनस्तत्वरूप सुदर्शन चक्र धारण किया है, जिनका डग तथा शूरवीरता समस्त पुरुषो में विलक्षण है, जिनका श्रुति-स्मृतिस्वरूप शासन अत्यंत उत्कृष्ट है, जो शब्द से कहे नही जा सकते, समस्त वेद तात्पर्यरूप से जिनका वर्णन करते है, जो तापत्रय से तपे हुओ के लिए विश्राम का स्थान है, ज्ञानी-अज्ञानी दोनों की रात्रि के करने वाले है|

 

अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणां वरः ।

विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः ।। 98 ।।

 

अर्थ:- जिनमे क्रूरता नही है, जो कर्म मन वाणी और शरीर से सुंदर है, बढ़ा-चढ़ा शक्तिमान तथा शीघ्र कार्य करने वाला तीनों में दक्ष है, जो सब ओर जाते है और सबको मारते है, जो क्षमा करने वाले योगियों आदि में श्रेष्ट है, जिन्हें सब प्रकार का ज्ञान है और किसी को नही है, जिनका सांसरिक रूप भय बीत( निवृत) हो गया है, जिनका श्रवण और कीर्तन पुण्यकारक है|

 

उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दुःस्वप्ननाशनः ।

वीरहा रक्षणः संतो जीवनः पर्यवस्थितः ।। 99 ।।

 

अर्थ:- संसार सागर से पार उतरने वाले है, पापनाम की दुष्क्रितयो का हनन करने वाले है, अपनी स्मृतिरूप वाणी से सबको पुण्य का उपदेश देने वाले है, संसारियो को मुक्ति देकर उनकी गतियो का हनन करने वाले है, तीनों लोकों की रक्षा करने वाले है, सन्मार्ग पर चलने वाले संतरूप है, प्राणरूप से समस्त प्रजा को जीवित रखने वाले है, विश्व को सब ओर से व्याप्त करके स्थित है|

 

अनंतरूपो-अनंतश्री: जितमन्यु: भयापहः ।

चतुरश्रो गंभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः ।। 100 ।।

 

अर्थ:- जिनका रूप अनंत है, जिनकी श्री अपरिमित है, जिन्होंने मन्यु अर्थात क्रोध को जीता है, पुरुषो का संस्कारजन्य भय नष्ट करने वाले है, न्यायमुक्त, जिनका मन गंभीर है, जो विविध प्रकार का फल देते है, इन्द्रादि को विविध प्रकार की आज्ञा देने वाले है, सबको उनके कर्मो का फल देने वाले है|

 

अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मी: सुवीरो रुचिरांगदः ।

जननो जनजन्मादि: भीमो भीमपराक्रमः ।। 101 ।।

 

अर्थ:- जिनका कोई आदि नही है, भूमि के भी आधार है, पृथ्वी की लक्ष्मी अर्थात शोभा है, जो विविध प्रकार से सुंदर स्फुरण करते है, जिनकी अंगद(भुजबंद) कल्याणस्वरूप है, जन्म लेने वाले जीव की उत्पत्ति के कारण है, भय के कारण है, जिनका पराक्रम असुरो के भय का कारण होता है|

 

आधारनिलयो-धाता पुष्पहासः प्रजागरः ।

ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः ।। 102 ।।

 

अर्थ:- पृथ्वी आदि पांचभूत अधरों के भी आधार है, जिनका कोई धाता(बनाने) वाला नही है, पुष्पों के हास(खिलने) के समान जिनका प्रपंचरूप से विकास होता है, प्रकर्षरूप से जागने वाले है, सबसे ऊपर है, जो सत्पथ का आचरण करते है, जो मरे  हुओ को जीवित क्र सकते है, जिनके वाचक ऊंकार का नाम प्रणव है, जो व्यवहार करने वाले है|

 

प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत प्राणजीवनः ।

तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्यु जरातिगः ।। 103 ।।

 

अर्थ:- जो स्वंय प्रमारूप है, जिनमे प्राण अर्थात इन्द्रिया लीं होती है, जो अन्न रूप से प्राणों का पोषण करते है, प्राण नामक वायु से प्राणियों को जीवित रखते है, तथ्य अमृत सत्य ये सब शब्द जिनके वाचक है, तत्व अर्थात स्वरूप को यथावत जानने वाले है, जो एक आत्मा है, जो न जन्म लेते है न मरते है|  

 

भूर्भवः स्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः ।

यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञांगो यज्ञवाहनः ।। 104 ।।

 

अर्थ:- भू भुवः और स्वः जिनका सार है उनका होमादि करके प्रजा तरती है, संसार सागर से तारने वाले है, पितामह ब्रह्मा के भी पिता है, यज्ञरूप है, यज्ञो के स्वामी है, जो यजमान रूपसे स्थित है, यज्ञ जिनके अंग है, फल हेतु यज्ञो का वहन करने वाले है|

 

यज्ञभृत्-यज्ञकृत्-यज्ञी यज्ञभुक्-यज्ञसाधनः ।

यज्ञान्तकृत-यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च ।। 105 ।।

 

अर्थ:- यज्ञ को धारण क्र उसकी रक्षा करने वाले है, जगत के आरम्भ और अंत में यज्ञ करते है, अपने आराधनात्मक यज्ञो के शेषी है, यज्ञ को भोगने वाले है, यज्ञ जिनकी प्राप्ति का साधन है, यज्ञ के फल की प्राप्ति करने वाले है, यज्ञ द्वारा प्राप्त होने वाले है, भूतो से खाए जाते है, अन्न को खाने वाले है|

 

आत्मयोनिः स्वयंजातो वैखानः सामगायनः ।

देवकीनंदनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः ।। 106 ।।

 

अर्थ:- आत्मा ही योनि है इसीलिए वे आत्मयोनि है, निमित्त कारण भी व्ही है, जिन्होंने वराह रूप धारण करके पृथ्वी को खोदा था, सामगान करने वाले है, देवकी के पुत्र है, सम्पूर्ण लोकों के रचयिता है, क्षिति अर्थात पृथ्वी के ईश है, पापो का नाश करने वाले है|

 

शंखभृन्नंदकी चक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः ।

रथांगपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः ।। 107 ।।

 

अर्थ:- जिन्होंने पांचजन्य नमक शंख धारण किया हुआ है, जिनके पास विद्यामय नमक खड्ग है, जिनकी आज्ञा से संसार चक्र चल रहा है, जिन्होंने शारंग नामक धनुष धारण किया है, जिन्होंने कोमोदिकी नामक गदा धारण की है, जिनके हाथ में रथांग अर्थात चक्र है, जिन्हें क्षोभित नही किया जा सकता, प्रहार करने वाली सभी वस्तुए जिनके आयुध है|

 

सर्वप्रहरणायुध ॐ नमः इति।

 

 

वनमालि गदी शार्ङ्गी शंखी चक्री च नंदकी ।

श्रीमान् नारायणो विष्णु: वासुदेवोअभिरक्षतु  \\ 108 \\


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