विष्णु भक्त बालक ध्रुव के ध्रुव तारा बनने की कथा / Dhruv Bhkt Katha / विष्णु मंत्र

 

विष्णु भक्त बालक ध्रुव के ध्रुव तारा बनने की कथा

 

 

ध्रुव परिचय

ध्रुव का परिवार परिचय

ध्रुव की सप्तऋषियों से भेंट

द्वादश अक्षर मंत्र का ध्रुव को ज्ञान देना

ध्रुव का वन में तपस्या करना

भगवान विष्णु का दर्शन देना

भक्त ध्रुव के पूर्व जन्म का रहस्य

ध्रुव को विष्णु से वरदान मिलना

निष्कर्ष

ध्रुव परिचय

ध्रुव का अर्थ होता है निश्चल, स्थिर, अनंत या जिसको अपने जगह से हटाया ना जा सके| अपने नाम को पूरी तरहसे सार्थक किया एक नन्हे 5 साल के बालक ध्रुव ने| अपनी विमाता के द्वारा पिता की गोद से उतारे जाने पर उसने प्रण लिया को वो ऐसे स्थान पर बैठेगा जहाँ से कोई उसको हटा ना सके| भगवान की विष्णु की 5 साल की उम्र में कड़ी तपस्या करने से वो आज तक भगवान विष्णु की प्रसिद्ध भक्तो में गिना जाता है| पिता की गोद से उतारे जाने से ही उसको भगवान विष्णु की गोद में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ|

भगवान विष्णु ने उसकी भक्ति से प्रसन्न हो उसको सभी ग्रहों, सभी नक्षत्रो, सप्तऋषियों और सभी देवगणों से सर्वोच्च स्थान प्रदान किया| उसके नाम से अन्तरिक्ष में अलग तारामंडल है जिसको ध्रुवलोक कहा जाता है| पुराने समय में और अब भी इसको उत्तर दिशा के सूचक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि यह अपनी जगह पर स्थिर है और सभी नक्षत्र और तारे इसके चारो और घूमते हुए प्रतीत होते है| सप्तऋषि तारामंडल के जब वार्षिक चक्र को देखा जाता है तो ये भी ध्रुव तारे की ओर ही इशारा करते हुए हिंदू धर्म का सबसे पवित्र चिह्न स्वस्तिक या जिसको सथिया कहते है का निर्माण करते है|

 

स्वस्तिक का हिंदू धर्म में महत्व जानने के लिए यहाँ क्लिक करे|

 Swastik ya sathiya ka mahtav

 

ध्रुव का परिवार परिचय

 ध्रुव कथा का विवरण विष्णु पुराण के प्रथम अंश के 11वे अध्याय में मिलता है| स्वायम्भुव मनु के प्रियव्रत और उतानपद नाम के दो पुत्र थे| उतानपद की दो पत्निया हुई जिसमे सुनीति से ध्रुव और सुरुचि से उत्तम नाम के बालक हुए| राजा उतानपद को छोटी रानी सुरुचि जो ज्यादा रूपसी थी से ज्यादा लगाव था| सुरुचि का पुत्र उत्तम ही राजा बने इसके कारण वह रानी सुनीति और बालक ध्रुव से ईर्ष्या करने लगी| एक दिन जब सुरुचि का पुत्र राजा उतानपद की गोद में बैठा हुआ था तो बालक ध्रुव भी अपने पिता की गोद में बैठने लगा तो सुरुचि ने बालक ध्रुव को राजा की गोद में से उतार के नीचे गिरा दिया और उसके पिता ने भी इस बात का कोई विरोध नही किया| पिता के प्यार पर अपना अधिकार समझने वाले नन्हे बालक के साथ जब ऐसा हुआ तो उसको कुछ समझ में नही आया कि उसकी छोटी माता और उसके पिता ने उसके साथ ऐसा क्यों किया|

 

राजा की प्रियसी होने के घमंड के कारण सुनीति ने ध्रुव को कहा “ अरे लल्ला! बिना मेरे पेट से उत्पन्न होने के कारण कैसे तुमने इतने बड़े मनोरथ के साथ राजा की गोद में बैठने का दुस्साहस कर लिया| यह सर्वोच्च राजसिंहासन और यह गोद मेरे पुत्र उत्तम की है तू व्यर्थ ही क्यों अपने मन को दुःख दे रहा है? क्या तुम जानते नही तुम सुनीति के पुत्र हो? जाओ भगवान विष्णु का स्मरण करो जिससे तुम अगले जन्म में मेरे गर्भ से उत्पन्न होवों तब तुम इस गोद में बैठने के अधिकारी होओगे|”

अपने साथ हुए ऐसे अपमान के कारण बालक ध्रुव कुपित हो अपनी माता सुनीति के पास आ गया| उसके होंठ कांप रहे थे अपने पुत्र को ऐसे क्रोध में देखकर सुनीति ने अपने पुत्र से उसके क्रोध का कारण पुछा और बोली “ मेरे पुत्र का आदर किसने नही किया? किसने तेरे साथ ऐसा अपराध करके तेरे पिता का भी अपमान किया है?” तब बालक ध्रुव ने उसको सारी बात बताई तो बहुत खिन्नचित्त भाव से कहा “ बेटा! अवश्य ही तू मंदभाग्य है| तू व्याकुल मत हो, क्योंकि तूने पूर्व जन्मो में जो कुछ किया है उसे दूर कौन कर सकता है? और जो नही किया वह तुझे दे भी कौन सकता है? इसीलिए तुझे उसके वाक्यों का खेद नही करना चाहिए|” अर्थात हमारे कर्म अगर अच्छे है तो हमे अच्छा फल ही मिलता है और अगर हमारे कर्म खराब है तो लाख कोशिशो के बाद भी हमे कुछ नही मिलेगा| 

       

सुनीति अपने पुत्र को आगे कहती है की जिसके कर्मो में जो होता है वो उसके अवश्य मिलकर रहता है इसीलिए पुत्र तू दुखी मत हो और सर्व फलदायक पुण्य के संग्रह करने का प्रयत्न कर| तू सुशील, पुण्यात्मा, प्रेमी और समस्त प्राणियों का हितेषी बन, क्योंकि जैसे नीची भूमि की और ढलकता हुआ जल स्वत पात्र में आ जाता है वैसे ही सत्पात्र मनुष्य के पास समस्त संपतिया अपने आप आ जाती है|

 

अपनी माता के मुख से ऐसी बात सुनकर उसका मन बिल्कुल भी शांत नही हुआ और वह अपनी माता से बोला कि अब वह वही प्रयत्न करेगा जिससे सम्पूर्ण लोकों में सबसे आदरनीय पद उसको प्राप्त हो| सुरुचि के गर्भ से पैदा हुआ उसका भाई उत्तम ही राजसिंहासन प्राप्त करे परन्तु अपनी माता सुनीति के गर्भ का प्रभाव दिखाने के लिए वह ऐसा पद प्राप्त करेगा जो उसके पिता ने भी प्राप्त नही किया| ऐसा कहकर ध्रुव महल को छोडकर उपवन में चला गया|

 

ध्रुव की सप्तऋषियों से भेंट

 ध्रुव को वन में कृष्ण मर्गचर्म के बिछौने पर बैठे हुए सप्तऋषियों को आदरसहित प्रणाम किया और बोला- हे महात्माओ! मे सुनीति से उत्पन्न हुआ राजा उतानपद का पुत्र हूँ| मै आपके पास आत्मग्लानि के कारण आया हूँ और उसके साथ जो हुआ वह सारा वृतांत उसने ऋषियों को सुनाया| तब सप्त्ऋषियों उसकी हर तरह से मदद करने का वादा किया और उससे उसकी इच्छा के बारे में पूछा|

ध्रुव ने कहा- मुझे ना तो धन की इच्छा है और ना राज्य की वो तो केवल एक ही स्थान को पाना चाहता है जिसको किसी ने ग्रहण ना किया हो| वह मुनियों से आगे कहता है कि वह इस स्थान को किस प्रकार प्राप्त कर सकता है इसमें उसका मार्गदर्शन करे|

 

ऋषि मरीचि ने कहा- हे राजपुत्र! बिना गोविन्द की आराधना किये मनुष्य को वह श्रेष्ट स्थान नही मिला सकता; अतः तू श्री अचुत्य की आराधना कर|

ऋषि अत्री बोले- जो परा प्रकृति आदि से भी परे है वे परमपुरुष जनार्दन जिससे संतुष्ट होते है उसी को वह अक्षयपद मिलता है|

ऋषि अंगिरा बोले- यदि तू अग्रन्य स्थान का इच्छुक है तो जिन अव्ययात्मा अचुत्य में यह सम्पूर्ण जगत ओतप्रोत है उन गोविन्द की आराधना कर|

ऋषि पुलस्त्य बोले- जो परब्रह्म, परमधाम और परस्वरूप है, उन हरि की आराधना करने से मनुष्य अति दुर्लभ मोक्षपद को भी प्राप्त क्र लेता है|

ऋषि पुलह बोले- हे सुव्रत! जिन जगतपति की आराधना करने से इंद्र ने अचुत्य्म इन्द्रपद प्राप्त किया है, तू उन यज्ञपति भगवान विष्णु की आराधना कर|

ऋषि क्रतु बोले- जो परमपुरुष यज्ञपुरुष, यज्ञ और योगेश्वर है, उन जनार्दन के संतुष्ट होने पर कोण से वस्तु दुर्लभ रह जाती है?

ऋषि वसिष्ठ बोले- हे वत्स! विष्णु भगवान की आराधना करने पर तू अपने मन से जो कुछ चाहेगा वहीं प्राप्त कर लेगा, फिर त्रिलोकी के उतमोत्तम स्थान की तो बात ही क्या है?

 

द्वादश मंत्र का ध्रुव को ज्ञान देना

 सभी ऋषिगणों ने ध्रुव को कहा कि मनुष्य को चाहिए की पहले सम्पूर्ण बाह्य विषयों से चित्त को हटाये और उसको भगवान में ही लीन करदे| इस प्रकार एकाग्रचित्त होकर उसे “ ॐ हिरण्यगर्भ, पुरुष, प्रधान और अव्यक्तरूप शुद्ध ज्ञानस्वरूप वासुदेव को नमस्कार है|ऐसा मन में ध्यान करते हुए ॐ नमो भगवते वासुदेवाय  मंत्र जो भगवान विष्णु का द्वादश अक्षर मंत्र है उसका जाप करते रहना चाहिए| यह सब सुनकर बालक ध्रुव उन ऋषियों को प्रणाम कर वन में चला गया|

 

ध्रुव का वन में तपस्या करना

ध्रुव यमुना तट के किनारे अति पवित्र मधु नामक वन में तपस्या करने के लिए चला गया और जिस प्रकार ऋषियों ने उसको ज्ञान दिया था उसी प्रकार भगवान निखिलदेवेश्वर का ह्रदय में ध्यान कर वन में तपस्या करने लगा| भगवान विष्णु को अपने हृदय में स्थित कर लेने से पृथ्वी अपना संतुलन खो देती है| उस समय सभी नदी, नद और समुन्द्र अत्यंत क्षुब्द हो गये और देवता भी विचलित हो गये| वो उसकी तपस्या को भंग करने के लिए नाना प्रकार के प्रयास करने लगे किन्तु उसकी भक्ति के आगे विफल हो गये| तब सभी देवगण भगवान विष्णु के पास जाते है और उनको अपनी समस्या से अवगत कराते है|

देवता बोले- हे जगन्नाथ, पुरुषोतम, परमेश्वर! चन्द्रमा की कलाओ की तरह ध्रुव की तपस्या दिन-प्रतिदिन बढती जा रही है| उसकी तपस्या से भयभीत होकर हम आपकी शरण में आये है क्योंकि हमे नही पता उसे इन्द्रत्व, सूर्यत्व, कुबेर, वरुण या चद्रमा कौन से पद की अभिलाषा है| कृप्या करके उसपर प्रसन्न होकर उसको दर्शन दीजिये|

 

भगवान विष्णु का बालक ध्रुव को दर्शन देना

सर्वात्मा भगवान हरि ने ध्रुव की तपस्या से प्रसन्न हो उसको अपने चतुर्भुज अवतार में दर्शन दिए और उसको इच्छानुसार श्रेष्ट वर मांगने के लिए बोला| ध्रुव जब आँखे खोली तो उसने भगवान विष्णु को साक्षात रूप में वैसा ही पाया जैसा उसने उनको अपने हृदय में स्थित किया था भगवान विष्णु को किरीट तथा शंख, चक्र, गदा, धनुष और खड्ग धारण किये हुए देख उसने पृथ्वी पर सर रखकर उनको प्रणाम किया और कहा की हे भगवन! यदि आप मेरी तपस्या से प्रसन्न है तो मै आपकी स्तुति करना चाहता हू बस मुझे यही वरदान दीजिये| भगवान विष्णु ने उस बालक को अपने शंख के अंत भाग से स्पर्श किया तो वह अपने आप ही अचुत्य की स्तुति करने लगा| ध्रुव विष्णुजी को कहते है कि प्रभो! मेरी सौतेली माता ने गर्व से अति बढ़-चढ़कर मुझसे यह कहा था कि ‘जो मेरे उदर से उत्पन्न नही है उसके योग्य यह राजासन नही है| अतः हे प्रभो! आपके प्रसाद से में उस सर्वोत्तम एवम् अव्यय स्थान को प्राप्त करना चाहता हूँ जो सम्पूर्ण विश्व का आधारभूत हो|

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भक्त ध्रुव के पूर्व जन्म का रहस्य

भगवान विष्णु उसको उसके पूर्वजन्म की याद दिलाते हुए कहते है कि तुम पिछले जन्म में एक ब्राह्मण थे और एकाग्रचित मन से अपने माता-पिता और मेरी सेवा की थी| बाद में एक राजा का पुत्र तेरा मित्र बना जिसको देखकर तेरे मन में भी राजपुत्र बनने की इच्छा जागृत हुई| अतः हे पुत्र! इस जन्म में मनु के कुल में तू राजा उतानपद का पुत्र पैदा हुआ है इससे दुर्लभ स्थान तुझे और क्या चाहिए| तूने मुझे अपनी तपस्या से अब भी संतुष्ट किया है इसीलिए उस सर्वोच्च स्थान को प्राप्त करेगा जो आजतक किसी को प्राप्त नही हुआ|

 

ध्रुव को विष्णु से वरदान मिलना

भगवान विष्णु उसकी तपस्या से खुश होकर त्रिलोकी में जो स्थान सबसे उत्कृष्ट है, सम्पूर्ण ग्रह और तारामंडल का आश्रय बनने का वरदान देते है और कहते है कि “हे ध्रुव! मै तुझे वह ध्रुव(निश्चल) स्थान देता हूँ जो सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुद्ध, ब्रहस्पति, सुकर और शनि आदि ग्रहों, सभी नक्षत्रो, सप्तऋषियों और समस्त विमानचारी देवगणों से भी ऊपर है| देवता तो केवल चार युग तक और ऋषि एक मन्वन्तर तक रहते है किन्तु मे तुझे एक कल्प तक की स्थिति देता हूँ| तेरी माता सुनीति भी तेरे साथ एक कल्प तक तेरे साथ उसी विमान पर निवास करेगी और जो लोग समाहित चित से सायकाल और प्रातकाल के समय तेरा गुण कीर्तन करेंगें उनको महान पुण्य होगा ऐसा मेरा आशीर्वाद है”|

 

निष्कर्ष

     इस प्रकार सुनीति ने ध्रुव को सर्व फलदायक पुण्य का संग्रह करने का उपदेश देने की वजहसे ध्रुव को उत्तम लोक प्राप्त हुआ| ध्रुव अपनी भक्ति के कारण तो प्रसिद्ध हुआ और उसको अन्तरिक्ष में भी एक तारामंडल मिला हुआ है सभी ग्रह, नक्षत्र उसके चारो और चक्कर लगाते हुए प्रतीत होते है| हिंदी में इसको ध्रुव तारा वही इंग्लिश में इसको North Pole Star कहते है जिसको उत्तर दिशा का सूचक माना जाता है|

 अतः हम जो भी कार्य अविचलित संकल्प और सुनीति( अच्छी नीति) के साथ शुरु करते वो अवश्य ही पूर्ण होता है| बालक ध्रुव ने अपने साथ अपनी माँ की गोद का प्रभाव भी सबको दिखाया| ऐसी माता अवश्य ही धन्य है जो सत्य और हितकर वचन बोलती है| बालक ध्रुव के इस प्रसंग का जो भी मनुष्य कीर्तन करता है या ध्रुव की हुई शिक्षा को मानता है वह चाहे स्वर्ग में रहे या पृथ्वी पर कभी अपने स्थान से च्युत नही होता है और सभी मंगलो से भरपूर जीवन जीता है और अन्तकाल के बाद भी याद किया जाता है|



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