Swastik सथिया/ स्वस्तिक (卐 or 卍) का महत्व

स्वस्तिक का महत्व या सथिया हिंदू धर्म का शुभ चिन्ह 

शुभ चिन्ह स्वस्तिक कहा से आया और इसका अन्य धर्मो के साथ हिंदू धर्म में कितना महत्व है| स्वस्तिक को कैसे बनाया जाता है? कोनसे तरफ और कोनसे रंग का स्वस्तिक शुभ होता है? हिदू धर्म के ग्रंथो में इसका क्या उल्लेख और महत्व होता है इसी बारे में बतया गया है|

 स्वस्तिक चिन्ह या सथिया 




स्वस्तिक ( or ) का अर्थ :- 

हिंदू धर्म के तीन शुभ चिन्ह ओउम् () या ओंकार , त्रिशूल और स्वस्तिक ( or ) भी शामिल है|  हिंदू ही नहीं अन्य धर्मो और प्राचीन सभ्याताओ में भी इसका वर्णन मिलता है| स्वस्तिक शब्द संस्कृत के तीन शब्दों सु + अस + क | जिसका अर्थ  'सु- अच्छा + अस्त- सत्ता या अस्तिव + क- कर्ता या करने वाला' है जिसका अर्थ है सबका कल्याण करने वाला| इसका प्रयोग किसी शुभ कार्य को शुरु करने से पहले किया जाता है जैसे गृहनिर्माण, यात्रा शुरु करते समय, पुत्रजन्म और सोलह सस्कारो मे भी इसका वर्णन है|

ब्रह्माण्ड दो तरह की उर्जाओ शिव और शक्ति, प्रकाश और विमर्ष, पुरुष और प्रकृति से बना है| वैसे ही स्वस्तिक दो तरह से बनाये जाते है दाहिने हाथ (卐) की ओर चलने वाला स्वस्तिक और बायीं (卍 या Aswastika ) ओर को चलने वाला स्वस्तिक| दाई ओर चलने वाले को (सूर्य) शुभ, सौभाग्यवर्धक ओर कल्याणकारी माना गया है वही बाएँ तरफ वाले को जो काले रंग से बना हो (काली/तंत्र) अमांगलिक ओर हानिकारक माना जाता है| दाया (Right) स्वस्तिक नर और बाया (Left) स्वस्तिक नारी को दर्शाता है| इसकी सीधी रेखाए ब्रह्माण्ड के निर्माण और विस्तार को तथा बीच का बिंदु जो इन रेखाओ को मिलाता है भगवान विष्णु के शिशुमार स्वरुप की कमल नाभि को दर्शाता है जिससे ब्रह्माण्ड का जन्म हुआ है| 

वेदों और पुराणों में वर्णन :-

  •   ऋग्वेद की ऋचाओ में स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना गया है जिसका चार भुजाये चार दिशाओ की ध्योतक है|
  •  ग्रथो में इसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक माना गया है जिसके मध्य भाग को भगवान विष्णु की नाभि ओर रेखाओ को   ब्रह्माजी के चार मुख, चार हाथ ओर चार वेद (ऋग्वेद, युजुर्वेद, सामवेद और अथर्वेद) बताया गया है|
  •  स्वस्तिक को गणेश का प्रतीक भी माना गया है|
  •  अन्य ग्रंथो मे इसे चार युग (सतयुग, द्वापरयुग, त्रेतायुग और कलयुग) , चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र),   चार आश्रम ( ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास) और पुरुषार्थ की चार अवस्था (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) बताया गया है|
  • वास्तुशास्त्र के अनुसार दो स्वस्तिक चिन्हों को एक दूसरे की तरफ मुह करके बनाते है तो वास्तु पुरुष का मंडल बनता है|
  •  स्वस्तिक का प्रयोग हठयोग की मुद्रा में बैठने की स्थिति में भी किया जाता है जिसे स्वस्तिकासन कहते है|


    स्वस्तिक वाचन मंत्र :-

   ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

अर्थ :- महती कीर्ति वाले एश्वर्यशाली इंद्र हमारा कल्याण करें, जिसको संसार का विज्ञान और जिसका सब पदार्थों में स्मरण है, सबके पोषणकर्ता वे पूषा (सूर्य) हमारा कल्याण करें| जिसकी चक्रधारा के समान गति को कोई रोक नही सकता, वे गरुड़देव हमारा कल्याण करे| वेदवाणी के स्वामी बृहस्पति हमारा कल्याण करे|

नक्षत्र शास्त्र क अनुसार चार नक्षत्र चित्रा, पुष्पा, रेवती, ब्रहस्पति की स्थिति की वजह से स्वस्तिक के आकार का निर्माण हुआ है| प्राकृतिक स्वस्तिक निरूपण के साथ साथ ये श्रुति ( स्वस्तिक मंत्र ) मानव के लिए स्वस्ति के अधिष्ठाता इन्द्रादि चारो नाक्षत्रिक देवतओं से प्रार्थना कर रही है कि वे चारो देवता मानव के लिए स्व स्वस्तिक को सुशांत बनाये रखें| 




 हिंदू धर्म के अलावा बौद्ध धर्म मे इसे भगवान बुद्ध की हथेलियों, पैरों और ह्रदय में भी अंकित किया गया है| बौद्ध धर्म के लोग बाये तरफ वाला स्वस्तिक बनाते है क्योंकि ये उनके अहंकार को खत्म करता है| भगवान बुद्ध के अनुसार अहंकार ही सब मुश्किलों का कारण है| जैन धर्म मे इसे जैनों के 7वे तीर्थकर सुपार्श्वानाथ का प्रतीक चिन्ह माना गया है वही पारसियों के पवित्र ग्रन्थ जेंद-अवेस्ता में भी इसे सूर्य की उपासना से जोड़कर देखा गया है| यूरोप ओर अमेरिका की प्राचीन सभ्यता में स्वस्तिक का प्रयोग होने के प्रमाण मिले है| ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैण्ड के मावरी आदिवासी स्वस्तिक को मंगल चिन्ह मानते है| साइप्रस की खुदाई मे जो मुर्तिया मिली है उनपर भी स्वस्तिक बना है ऐसे ही प्रमाण मिस्र, यूनान, मोहनजोदारो, वैदिककाल, की खुदाई के समय मिले है| रामायण, महाभारत ओर अशोक के शिलालेखो मे भी इसका वर्णन है।


                         
ब्रह्माण्ड विज्ञान / ज्योतिष शास्त्र में स्वस्तिक :-

प्राचीन भारतीय ज्योतिष शास्त्र मे 7 तारो के तारामंडल का वर्णन है जिसे सप्तर्षि नाम दिया गया है जो सात तारों “वशिष्ट”, “मरीचि”, “पुलस्त्य”, “पुलह”, “अत्री”, “अंगिरस” और “क्रतु” है| इन तारो को काल्पनिक रेखाओ से मिलाने पर एक प्रश्न-चिन्ह की आकृति बनती है| अगर हम आगे के दो तारो को मिलाने वाली लाइन को उत्तर दिशा की ओर बढ़ते है तो ये ध्रुव तारे तक पहुच जाती है| सप्तर्षि मंडल ध्रुव तारे की चारो ओर २४ घंटे में एक चक्र पूरा लगा लेता है| जब हम इसको अलग-अलग ऋतु में देखते है तो यह स्वस्तिक के चिन्ह के जैसे प्रतीत होता है| शायद ये चिन्ह यही से बना हुआ लगता है जो अलग अलग जगहों, सभ्यताओ पर मिले साक्ष्यो जैसा प्रतीत होता है| प्राचीन भारतीय ओर मिश्र के देवी देवताओ में भी ऐसी ही समानताये पाई गई है| रामायण के एक श्लोक ' ध्रुवं सर्वे प्रदक्षिणं ' जिसका मतलब है की ध्रुव तारे के चारों ओर सप्तऋषि प्रदक्षिणा ( चारो तरफ घूमते ) है| इसी से ही हिंदू धर्म में विवाह के समय फेरे ( प्रदक्षिणा) और  मंदिरों के गर्भग्रह  की  प्रदक्षिणा ली जाती है|  इसी के आधार पर सभी नक्षत्रो और ज्योतिष शास्त्र का जन्म हुआ है|

विज्ञान की सहायता से एक उपकरण का अविष्कार हुआ जिसे लाइफ फ़ोर्स इंडेक्स या बोविस-स्केल कहते है| जिससे किसी भी जीवित वस्तु, पदार्थ इत्यादि की उर्जा मापी जाती है| एक मृत आदमी के शरीर की बोविस एनर्जी जीरो होगी वही एक स्वस्थ मनुष्य की एनर्जी 8000 से 10000 बोविस होती है| जैसे ही इस यंत्र को हम ओम चिन्ह का पास लाते है तो इसकी एनर्जी 1 लाख बोविस रिकॉर्ड की गयी वही स्वस्तिक की एनर्जी इससे 10 गुना ज्यादा रिकॉर्ड की गई है| अतः अब विज्ञान भी स्वस्तिक की महता को जानने लगा है|

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