Devi Arundhati and Vasistha story wife of sage Vasistha

 



अरुंधती-वसिष्ठ तारा / वसिष्ठ की पत्नी

अरुंधती सप्तऋषियों में से ऋषि वसिष्ठ की पत्नी थी, उन्हें सात ऋषियों के समान दर्जा दिया जाता है और उनके साथ पूजा की जाती है| वैदिक और पौराणिक साहित्य में उन्हें शुद्धता, वैवाहिक आनंद और पत्नी भक्ति का प्रतीक माना जाता है| संस्कृत और हिंदी की कविताओ में उनके चरित्र को बेदाग, प्रेरक और अनुकरण के योग्य बताया गया है|

अरुंधती के जन्म का उल्लेख शिव पुराण और भागवत पुराण में मिलता है| शिव पुराण के अनुसार पिछले जन्म में उनका नाम संध्या था| ब्रह्मा ने संध्या और मन्मथा को अपनी मनसपुत्रियों के रूप में पैदा किया था| ब्रह्मा और प्रजापति जो उसके पिता और भाई थे उसकी सुन्दरता पर मोहित हो जाते है और वह भी उनकी तरफ आकर्षित हो जाती है जिससे उसको बाद में पछतावा हो जाता है| अपनी इस गलती के पश्चाताप के लिए वह चंद्रभागा पर्वत पर हजारो सालो तक तपस्या करती है| ब्रह्मा को उसपर दया आ जाती है और वो ऋषि वसिष्ठ को उसकी मदद के लिए भेजते है तब ऋषि एक ब्राह्मण के वेश में उसके पास जाकर उसको भगवान विष्णु की तपस्या करने की विधि बताते है| भगवान विष्णु उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसको तीन वरदान देते है

  • सभी जीवो में एक निश्चित समय के बाद कामवासना की इच्छा जागे ना की जन्म से|
  • तीनों लोकों में उसको पवित्रता का प्रतीक माना जाए|
  • वह अपने सभी जन्मो में अपने पति के प्रति समर्पित रहे किसी और के बारे में गलत विचार ना करे और अगर कोई उसको गलत नजर से देखे तो वो नपुंसक बन जाए|

इसी वरदान के बाद से सभी जीवो में बचपन और शैशव काल जाने के बाद ही जननांगो का विकास होता है और उनमे कामवासना विकसित होती है| भगवान विष्णु संध्या को कहते है की वो जिसको भी अगले जन्म में अपना पति बनाना चाहती है उसका ध्यान करते हुए ऋषि मेधातिथि जो 12 वर्षो से पुत्रीप्राप्ति के लिए हवन कर रहे है के अग्निकुंड में समाहित होकर अपना शरीर त्याग दे| उसी हवन कुंड से वो फिरसे पुनर्जीवित हो जाएगी और वही उसका पति बनेगा जिसके बारे में उसने विचार किया था| संध्या मन ही मन वसिष्ठ को अपना पति मानकर उस कुंड में समाहित हो जाती है| अग्नि देव उसके शरीर को दो हिस्सों में बाँट देते है एक हिस्से को प्रातसंध्या जिसे सूर्यदेव अपने रथ के ऊपरी हिस्से  और दूसरें हिस्से को सायसंध्या को रथ के निचले हिस्से में स्थापित कर लेते है| उस अग्निकुंड के बीचोंबीच से एक कन्या का जन्म हुआ जिसका नाम अरुन्धती (अग्नि से पैदा हुई) रखा गया| भागवत पुराण में अरुंधती को प्रजापति कर्दम और देवहुति की नौ बेटियों में से आठवीं बताया गया है|

 

चंद्रभागा नदी के तट पर मेधातिथि का आश्रम था और वहीं पर अरुंधती का लालन पालन हुआ| ब्रह्मा जी के आदेश पर मेधातिथि अपनी कन्या को सूर्यलोक में सावित्री के पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए लेकर गये| वहापर अरुंधती ने सावित्री, गायत्री, सरस्वती और द्रुपद से सात सालो तक धर्मज्ञान प्राप्त किया| शिक्षा पूरी हो जाने के बाद मेधातिथि ने अपनी कन्या का विवाह ऋषि वसिष्ठ के साथ संपन्न करवा दिया| महर्षि वसिष्ठ और अरुंधती से चित्रकेतु, सुरोचि, विरत्रा, मित्र, उल्वण, वसु, भ्रदयाना और धुतमान नामक पुत्र हुए| ये सभी पुत्र ब्रह्मऋषि थे|   

 

देवी अरुंधती के कठोर तप और पवित्रता के वृतांत अलग अलग ग्रंथो में बहुत जगह मिलते है|

ऐसे ही एक जगह अग्निदेव और उनकी पत्नी स्वाहा से जुड़ा वर्णन मिलता है कि जब भी सप्तऋषि अपनी पत्नियों के साथ कोई यज्ञ करते थे तो अग्निदेव ऋषियों की पत्नियों के तेज से प्रभावित हो जाते थे| अग्निदेव की पत्नी स्वाहा को जब इस बारे में पता चला तो अपने पति को प्रभावित करने के लिए उसने बारी बारी सभी सप्तऋषियों की पत्नियों का रूप धारण करना शुरु कर दिया| वह 6 ऋषियों की पत्नियों का रूप तो धर पायी लेकिन अरुन्धती की पवित्रता के तेज की वजहसे कई बार कोशिश करने पर भी उसका रूप धारण ना कर सकीतब सभी देवतओं और त्रिदेवो ने उसके तप को प्रणाम किया|

महाभारत के शल्यपर्व में भी अरुंधती और भगवान शिव से जुडी एक कहानी है| एक बार ऋषि वसिष्ठ अरुंधती को आश्रम की जिम्मेदारी सौपकर सप्त्ऋषियों के साथ हिमालय पर्वत पर तपस्या करने के लिए चले जाते है| उनकी चले जाने के बाद वहा पर भयंकर सुखा पड़ जाता है और हर जगह जीव जंतु मरने लग जाते है ऐसे हालात देखकर अरुंधती भगवान शिव की तपस्या करने बैठ जाती है भगवान शिव उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसको ब्राह्मण के वेश में दर्शन देते है और उसके आश्रम में जाकर भिक्षा मांगने लगते है| आश्रम में कुछ भी खाने और पीने के लिए नही था तब अरुंधती उनको बद्री के फलो को पकाकर खिलाती है| कई विद्वान ऐसा मानते है की ये बद्री के फल पत्थर या लोहे जैसे सख्त होते है जिनको पकाने में अरुंधती को 12 साल लग गये शिव जो की ब्राह्मण के वेश में आये थे को समय का पता ना चले इसके लिए अरुंधती उनको वेदों और पुराणों का ज्ञान कथाओ के माध्यम से सुनाती है| इस तरह कहानी सुनते सुनते 12 साल बीत जाते है और बद्री के फल पक जाने पर ब्राह्मण उसका सेवन करते है| देखते देखते हर जगह हरियाली छा जाती है और बारिश होने लगती है जिससे धरती का सुखा दूर हो जाता है| तब तक ऋषि वसिष्ठ भी अपनी तपस्या खत्म करके आ जाते है तब भगवान शिव उनको अपना असली रूप दिखाते है और अरुंधती के ज्ञान को प्रणाम करते है आज भी वह स्थान और उनका आश्रम बहुत ही पवित्र माना जाता है|

रामचरितमानस, रामायण और विनयपत्रिका मे भगवान राम और माता सीता का वसिष्ठ ऋषि के आश्रम में जाने का वर्णन है जहाँ भगवान राम ऋषि वसिष्ठ और माता सीता अरुंधती से ज्ञान प्राप्त करते है|

 

सप्तऋषि तारामंडल में अरुंधती- वसिष्ठ तारे का महत्व :-

त्रिदेवो ने वसिष्ठ और अरुंधती को आकाश में तारा बनने का वरदान दिया था और कहा कि आप दोनों हमेशा एक साथ रहेंगे| जब हम सप्तऋषि तारामंडल को देखते है वसिष्ठ तारे के साथ में एक धुंधला तारा दिखाई देता है जिसे अरुंधती तारा कहा गया है| ये दोनों तारे एक दूसरे का चक्कर लगाते प्रतीत होते है जैसे भारतीय परंपरा में पति-पत्नी को समान दर्जा दिया गया है और उनको अक ही गाड़ी के पहिये बताया गया है| दक्षिण भारत में नवविवाहित जोड़े को फेरो के बाद अरुंधती वसिष्ठ तारा दिखाने की परंपरा है क्योंकि उन दोनों को आदर्श पति-पत्नी माना गया है|

जब हम इस तारामंडल को देखते है तो अरुंधती तारे को धुंधला होने की वजहसे एकदम से नही देख पाते इसके लिए पहले हमे सबसे तेज तारे को देखते हुए धीरे धीरे उसकी तरफ देखना होता तभी हमे वो तारा दिखाई पड़ता है| संस्कृत में इसका एक मुहावरा भी है जिसको अरुंधतीदर्शान्याह: कहते है जिसका मतलब है ज्ञात से अज्ञात को जानना या जो दिखाई देता हो उसको देखकर जो नही दिखाई देता उसको जानना|

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