ऋषि याज्ञवल्क्य - मैत्री संवाद बृहदअरण्यक उपनिषद् ( आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः )



             

महर्षि याज्ञवल्क्य मैत्री संवाद बृहदअरण्यक उपनिषद् :-

मैत्री वैदिक काल की महान विदुषी जिसने आत्मा और ब्रह्माण्ड के एक होने को लेकर संवाद उपनिषद में मिलता है की अद्वैत दर्शन शास्त्र का मूल स्तम्भ है| मैत्री को प्राचीन संस्कृत साहित्य में ब्रह्मवादिनी ( जिसको वेदों का ज्ञान हो ) बताया गया है| मैत्री स्त्री शिक्षा के महत्व के रूप मे एक मिशाल है जिसने गृहस्थ जीवन जीने के साथ साथ अध्यात्मिक ज्ञान को भी प्राप्त किया और आजीवन अध्यनन मनन में लीन रही| बृहदअरण्यक उपनिषद् में इनको महर्षि याज्ञवल्क्य की पत्नी बताया गया है वही महाभारत में इनको आजीवन ब्रह्मचारिणी बताया गया है जिन्होंने जनक को अद्वैत दर्शन के बारे में बताया था|

बृहदअरण्यक उपनिषद् में मैत्री का वर्णन :-

ऋषि याज्ञवल्क्य का वर्णन बृहदअरण्यक उपनिषद् में कई प्रसंगों में मिलता है उनका गगरी और मैत्री के स्थ हुआ संवाद काफी दिलचस्प है जिसमे आत्मा और ब्रह्माण्ड को जानने का वर्णन है| ऋषि याज्ञवल्क्य  सुलभ मैत्री ( ऋषि मैत्री की पुत्री ) और कात्यायनी ( ऋषि भारद्वाज की पुत्री )  ऋषि याज्ञवल्क्य की दो पत्निया थी| मैत्री को अध्यातम और वेदों का ज्ञान था और ऐसे ही विचार अपने पति से साँझा करने की वजह से वह पति को प्रिय थी वही कात्यायनी एक गृहस्थ जीवन जीने वाली थी| महर्षि याज्ञवल्क्य ने जीवन की नीरसता को जानते हुए भी जीवन के चार आश्रमों ( ब्रह्मचर्य , गृहस्थ , वानप्रस्थ और संन्यास ) का अनुसरण करना चुना| तीनों आश्रम पूरा करने के बाद जब उन्होंने संन्यास आश्रम में जाने का विचार आया तो उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों को बुलाकर संपति को बराबर बाटने को कहा तो मैत्री ने संपति ना लेकर अपने पति से आत्मज्ञान के बारे में जानना ज्यादा मूल्यवान लगा | इस तरह महर्षि याज्ञवल्क्य और मैत्री के संवाद का वर्णन मिलता है जिसमे आत्मा और ब्रह्माण्ड के एक होने का वर्णन मिलता है जो अद्वैत दर्शन का मूल आधार है| और इस तरह मैत्री को अपने पति से आत्मज्ञान मिला| अपने पति के जाने और सन्यासी बनने के बाद मैत्री भी सन्यासिनी बन जाती और एक त्यागी जीवन जीती है|

 

महर्षि याज्ञवल्क्य मैत्री संवाद :-

ऋषि अपनी दोनों पत्नियों को बुलाकर जब सम्पति को बराबर बाटने की कहते है तो मैत्री अपने पति से पूछती है कि आप संपति को बराबर बटने की तो कह रहे है पर क्या ये भौतिक सुख और संपति हमे सारी जिन्दगी खुश रख सकती है? क्या इस संपति से अमर हुआ जा सकता है? अगर मे पूरी पृथ्वी की मालिक हो जाऊ तो क्या तब भी मे पूरी जिंदगी खुश रह सकती हू या कोई अन्य ऐसी चीज़ है जो मुझे पूरी जिंदगी खुद रख सकती है? जब हम सबका एक दिन मरना निश्चित ही है तो इस अनिश्चित संसार में इन सब चीजों का क्या मूल्य है मुझे बताईये?

महर्षि याज्ञवल्क्य मैत्री से ये प्रश्न ऐसे मौके पर सुनकर बहुत खुश होते है उन्हें मैत्री से ऐसे अध्यात्मिक प्रश्न पूछे जाने की उम्मीद नही थी| तब ऋषि याज्ञवल्क्य ने मैत्री को कहा की यही दृष्टीकोण साँझा करने की वजह से हे मैत्री तुम मुझे इतनी प्रिये हो मैं तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर जरुर दूंगा तुम उसका उत्तर सुनना और उसपर मनन करना|

ऋषि याज्ञवल्क्य ने कहा   

 

आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः।

आत्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेन सर्व विज्ञातं भवति।।

(वृहदारण्यक 2/4/5)

 

 तब ऋषि याज्ञवल्क्य जी ने कहा की आत्मा ही देखने, जानने, सुनने और मनन करने योग्य है उसको जानने के बाद ना तो कुछ जानने के लिए बचता और ना ही फिर किसी को पाने की जरूरत रहती| इसीलिए तुम आत्मा को जानने का प्रयास करो इन भौतिक चीजों को पाकर संतोष नही मिलता ये तो इच्छाओ और कामनाओ को और ज्यादा पैदा करते है जिससे मानव और ज्यादा दुखो के गड्ढे में गिरता है इसलिए तुम खुद की आत्मा के बारे में जानने का प्रयास करो| जिसने अपनी आत्मा को ही नही जाना उसके लिए कमाया हुआ सब धन सब ऐश्वर्य आराम व्यर्थ है|

ऋषि याज्ञवल्क्य कहते है पत्नी का पति के लिए प्रेम, पति का पत्नी के लिए प्रेम, पुत्र के प्रति प्रेम, धन के प्रति प्रेम या मानव किसी से भी प्रेम करता है तो उसका प्रयोजन खुद (आत्मा ) को संतुष्ट करना होता है और हम उसी को प्रेम करते है और उसी की कामना करते है| जिससे हम प्रेम नही करते जो हमे दुःख या कष्ट देते है हम उसको प्रेम नही करते इसका अर्थ यही है की हम जो भी करते है खुद के लिए करते है अपनी आत्मा को संतुस्ट करने के लिए करते है हम सबसे ज्यादा अपने आप को अपनी आत्मा को प्रेम करते है इसीलिए हमारा पहला प्रयोजन आत्मा को संतुष्ट करने का होना चाहिए | अगर हमने उसको जान लिया तो फिर कुछ भी शेष नही बचता है जानने और समझने के लिए|


वेदों में ऐसी बहुत से प्रसंग मिलते है जिनमे बहुत सी स्त्रियों का वर्णन मिलता है जिनको वेदों का ज्ञान था और वो प्रखंड विद्वानी थी| यह संवाद हमे हमारे वैदिक काल के उस स्वर्णिम दौर का स्मरण करता है जब महिलाओ को भी पुरुषो के बराबर गृहस्थी मे महत्व दिया जाता था और उसके साथ वो वेदों को पढ़ सकती थी और आत्म ज्ञान को प्राप्त कर सकती थी जैसे जैसे वैदिक काल समाप्त होता गया महिलाओ से ये अधिकार छिनते चले गये उनको घर के अंदर दबाकर रखा गया और वेदों को पढने पर रोक लगा दी गयी पर अब समय के साथ हुए विरोध के बाद महिलाओ की स्थिति में काफी सुधार आ रहा है उनको भी पढने के मौके दिए जाते है ऐसी भी बहुत से आश्रम बनाये गये है जहाँ महिलाये उन वेदों और मंत्रो का अध्यनन कर सकती है वो यज्ञ और मंत्रोपचार कर सकती है | वेद हमारी संस्कृति का एक अहम हिस्सा है हमे चाहिए की हम फिर से उनको अपने जीवन में स्थापित करे उनके अंदर ऐसे बहुत से गूढ़ रहस्य छिपे है जिनको जानने से भारत फिर से एक बार सोने की चिड़िया बन सकता है|     

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